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गांधी और चर्चिल का मरणोपरांत मिलन

इस महीने के शुरू में महात्मा गांधी की एक मूर्ति का अनावरण लंदन के पार्लियामेंट स्क्वॉयर में किया गया। वहां पर लगी यह 11वीं मूर्ति है, लेकिन उनमें गांधीजी एकमात्र हैं, जो किसी सत्ता के पद पर नहीं रहे।...

गांधी और चर्चिल का मरणोपरांत मिलन
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 20 Mar 2015 09:11 PM
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इस महीने के शुरू में महात्मा गांधी की एक मूर्ति का अनावरण लंदन के पार्लियामेंट स्क्वॉयर में किया गया। वहां पर लगी यह 11वीं मूर्ति है, लेकिन उनमें गांधीजी एकमात्र हैं, जो किसी सत्ता के पद पर नहीं रहे। इसके पहले से जिन लोगों की मूर्तियां वहां लगी हुई हैं, उनमें सात अंग्रेज प्रधानमंत्री, दक्षिण अफ्रीकी नेल्सन मंडेला और जॉन क्रिश्चियन स्मट्ज और अमेरिकी अब्राहम लिंकन हैं। महात्मा गांधी स्मट्स से अच्छी तरह से परिचित थे। वे दोनों दक्षिण अफ्रीका में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे, जहां गांधीजी ने भारतीयों के अधिकारों के लिए आंदोलन किया था और स्मट्स ने उसका विरोध किया था। स्मट्स पहले उपनिवेश सचिव और बाद में गृह मंत्री थे। अपनी प्रतिद्वंद्विता में दोनों एक-दूसरे के दबे-छिपे प्रशंसक भी बन गए थे। जब गांधीजी सन 1915 में भारत लौटे, तो स्मट्स ने एक मित्र को लिखा कि संत हमारे देश से चले गए हैं और मुझे उम्मीद है कि वह लौटकर नहीं आएंगे। 25 साल बाद गांधीजी की 70वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित एक स्मारिका में कुछ लिखने के लिए स्मट्स से आग्रह किया गया। उन्होंने एक छोटा-सा तीखा लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि गांधीजी के आंदोलनों ने एक अनियंत्रित और जंगली उथल-पुथल मचा दी थी, जिसमें ढेर सारे भारतीय गैर-कानूनी बर्ताव की वजह से जेल में भेजे गए और खुद गांधीजी को कुछ दिन जेल में बिताने पड़े थे, जो खुद गांधीजी चाहते थे।

स्मट्स ने आगे लिखा कि गांधीजी की शैली पहली नजर में पश्चिमी सभ्यता व लोकतंत्र के तरीकों से काफी दूर नजर आती हैं, लेकिन वह ईसाइयों को ईसा मसीह के तरीकों की याद दिलाती है। उनका कहना था कि राजनीतिक तरीकों में गांधी का योगदान यह है कि वह लोगों की सहानुभूति और समर्थन हासिल करने के लिए खुद यातनाएं झेलते हैं। जब तर्क और दबाव के आम राजनीतिक तरीके विफल हो जाते हैं, तब वह अपनी इस नई तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जो भारत व पूरब की प्राचीन परंपराओं पर आधारित है। गांधीजी के बारे में स्मट्स के विचार वक्त के साथ काफी नरम हो गए थे,  लेकिन ऐसा विंस्टन चर्चिल के साथ कभी नहीं हुआ, जिनकी मूर्ति भी पार्लियामेंट स्क्वॉयर में लगी हुई है। अगर 20वीं शताब्दी के महानतम राजनेताओं की संक्षिप्त सूची बनाई जाए, तो गांधी और चर्चिल, दोनों उसमें आएंगे। चर्चिल ने हिटलर और नाजीवाद को हराने में बड़ी भूमिका निभाई।

गांधीजी ने अहिंसा के हथियार से एक विशाल साम्राज्य को खत्म कर दिया। चर्चिल के बारे में गांधीजी के कोई निश्चित विचार नहीं थे। दूसरी ओर, चर्चिल गांधी को बुरी तरह नापसंद करते थे। सन 1930 में जब गांधीजी ने नमक सत्याग्रह शुरू किया, तो चर्चिल ने अपने कमजोर पड़ते राजनीतिक करियर को उभारने के लिए ब्रिटिश जनता से इन मांगों को न मानने की चेतावनी दी। चर्चिल ने कहा कि गांधी अंग्रेजों को भारत से निकालना चाहते हैं। गांधी अंग्रेजी व्यापार को भारत से स्थायी रूप से बाहर करना चाहते हैं। हम गांधी के साथ कभी सहयोग नहीं कर पाएंगे। गांधीवाद को कभी-न-कभी कुचलना ही होगा।

एक साल बाद गांधीजी गोलमेज कांफ्रेंस के लिए लंदन पहुंचे। जिस दिन वह पहुंचे, उन्होंने प्रेस से कहा कि मैं श्री विंस्टन चर्चिल और उपनिवेश समर्थक प्रेस मालिक लॉर्ड रॉदरमेयर से मिलने के लिए उन्हें चिट्ठियां लिखूंगा। मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। मेरी यह कोशिश रहती है कि जो मेरे विरोधी हैं, मैं उनसे मिलकर अपनी बात रखूं। चर्चिल ने गांधीजी से मिलने से इनकार कर दिया। 1930 के दशक में वह भारतीयों को ज्यादा अधिकार देने के खिलाफ लगातार बोलते रहे। मई 1940 में जब वह प्रधानमंत्री बन गए, तब भी गांधीजी और भारतीय राष्ट्रवादियों से बातचीत के हमेशा विरोधी रहे। उनके राज में भारत छोड़ो आंदोलन को काफी सख्ती से दबाया गया। सन 1940 में जब गांधीजी को रिहा किया गया, तो उन्होंने वायसराय लॉर्ड वेवल से बातचीत शुरू करने की कोशिश की। चर्चिल का कहना था कि वायसराय को ऐसे विश्वासघाती के साथ बातचीत नहीं करनी चाहिए और उसे वापस जेल में डाल देना चाहिए।

सन 1948 में गांधीजी की मृत्यु हो गई। तीन साल बाद चर्चिल ने अपने युद्ध के दौरान के संस्मरणों की पहली किस्त दि हिंज ऑफ फेट प्रकाशित की। उसमें उन्होंने अपने पुराने दुश्मन के खिलाफ एक आश्चर्यजनक आरोप लगाया। उन्होंने लिखा- ‘फरवरी 1943 के शुरू में मिस्टर गांधी ने तीन हफ्ते तक उपवास करने की घोषणा की। वह अंग्रेज और उनके भारतीय डॉक्टरों की लगातार निगरानी में पूना के बाहर एक छोटे-से महल में बहुत आरामदेह परिस्थितियों में रहे। वह जिद के साथ उपवास करते रहे और पूरी दुनिया में यह प्रचार किया गया कि वह मर सकते हैं। हालांकि यह निश्चित है कि शुरुआती दिनों में उन्हें पानी में ग्लूकोज मिलाकर दिया गया, उसकी वजह से और अपनी जीवन-शक्ति व संयम की आदतों की वजह से वह इस उपवास को आसानी से निभा गए। अंत में जब वह हमारे निश्चय को जान गए, तो उन्होंने उपवास तोड़ दिया और उनकी सेहत ठीक रही।’

इसके प्रकाशन से भारत में बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई। गांधीजी के सचिव प्यारेलाल और उनके डॉक्टर विधानचंद्र राय ने चर्चिल को गुस्से भरी चिट्ठियां लिखीं। उन्होंने चर्चिल के दावों को झूठी बदनामी बतलाया। गांधीजी ने अपने उपवास के दौरान ग्लूकोज लेने से मना कर दिया था, जबकि एक सरकारी डॉक्टर ने यह चेतावनी दी थी कि इसके बिना वह मर सकते हैं। इसके अलावा, गांधीजी हमेशा से ही यह कहते रहे थे कि वह तीन हफ्ते के लिए ही उपवास कर रहे हैं। इस दिलचस्प घटना पर शोध के सिलसिले में मैंने उस वक्त के अखबारों में काफी तीखे संपादकीय देखे। उस वक्त अंबाला से छपने वाले ‘दि ट्रिब्यून’ में कहा गया है कि मिस्टर चर्चिल का बयान यह बताता है कि वह महात्मा के चरित्र और इस देश के बारे में कुछ नहीं जानते।

चर्चिल युद्ध के दौर के महान नेता हैं, लेकिन उनसे ज्यादा संकीर्ण नजरिया किसी का नहीं हो सकता। उस वक्त के अखबार ‘इंडियन न्यूज क्रॉनिकल’ ने और भी तीखा हमला किया। उनके संपादकीय का शीर्षक था ‘‘चर्चिलियाना।’ ‘दि हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने कम तीखा, लेकिन ज्यादा प्रभावी तरीका अपनाया। तब इस अखबार के संपादक गांधीजी बेटे देवदास थे। उन्होंने एक संवाददाता से मेजर जनरल आर एच कैंडी से संपर्क करने को कहा। कैंडी अंग्रेज डॉक्टर थे, जिन्होंने उपवास के दौरान गांधीजी की देखभाल की थी। कैंडी रिटायरमेंट के बाद इंग्लैंड के ग्रामीण इलाके में रह रहे थे। जब उनसे चर्चिल के आरोपों पर टिप्पणी करने को कहा गया, तो उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि उन्होंने गांधीजी से ग्लूकोज लेने को कहा था, लेकिन गांधीजी ने मना कर दिया था।

चर्चिल ने इन प्रतिक्रियाओं का क्या जवाब दिया, पता नहीं। लेकिन गांधी के प्रति उनकी नापसंदगी बहुत साफ थी। वे दोनों लंदन में सन 1906 में सिर्फ एक बार मिले थे। जब चर्चिल औपनिवेशिक मामलों के राज्यमंत्री थे। इस हैसियत से उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के प्रमुख रास्तों से भारतीय व्यापारियों के प्रतिष्ठानों को हटाने का समर्थन किया था, जबकि गांधीजी उसके खिलाफ थे। गांधीजी चर्चिल को आश्वस्त नहीं कर पाए कि तमाम नस्लों का एक साथ रहना ज्यादा मानवीय तरीका है। एक शताब्दी से भी ज्यादा के बाद गांधी और चर्चिल लंदन में मरणोपरांत मिले हैं। गांधी और मंडेला की मूर्तियां पार्लियामेंट स्क्वॉयर में कई गोरे नेताओं की मूर्तियों के साथ खड़ी हैं। यह इस बात का सुबूत है कि इंग्लैंड नस्लवाद और उपनिवेशवाद पर चर्चिल के विचारों से कितनी दूर आ चुका है।
 (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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