आधुनिक शिक्षा प्रणाली को आईना दिखाते कल्ले भाई
उन्होंने हाई स्कूल तक की तालीम भी हासिल नहीं की, फिर भी वर्षों तक वह कई पीएचडी करने वालों के गाइड रहे। आज वह दादा बन चुके हैं, मगर उनमें अब भी गजब की ऊर्जा है। वह एक इतिहासकार, कातिब, लेखक,...
उन्होंने हाई स्कूल तक की तालीम भी हासिल नहीं की, फिर भी वर्षों तक वह कई पीएचडी करने वालों के गाइड रहे। आज वह दादा बन चुके हैं, मगर उनमें अब भी गजब की ऊर्जा है। वह एक इतिहासकार, कातिब, लेखक, फोटोग्राफर, पर्यटक, गाइड व बुनकर रह चुके हैं; और इन दिनों डिजिटल सेल्समैन, सोशल मीडिया पेशेवर और वेबसाइट मैनेजर की भूमिका में सक्रिय हैं। मुजफ्फर अंसारी उर्फ कल्ले भाई से अपनी पहली मुलाकात मुझे आज भी याद है। साल 2009 में मैंने मध्य प्रदेश के चंदेरी शहर का दौरा यह जानने के लिए किया था कि वहां के बुनकरों के हक में क्या कुछ डिजिटल प्रयास हो सकते हैं।
चंदेरी में मेरी पहली मुलाकात जिस शख्स से हुई, वह कल्ले भाई थे, जो मुझे लेने शहर के करीबी रेलवे स्टेशन ललितपुर आए थे। मुझे आज भी याद है कि उर्दू के बारे में उनके मालूमात ने मुझे तब हैरान कर दिया था। आगे चलकर चंदेरी की तहजीब, रवायतों, लोगों के मिजाज और मसाइल को समझने में कल्ले भाई हमारे लैंपपोस्ट बने और इसी सबने हमें वहां ‘चंदेरियां’ प्रोजेक्ट शुरू करने को प्रेरित किया। मध्य प्रदेश घूमने जाने वाले सैलानी खजुराहो, झांसी, उज्जैन, ग्वालियर, इंदौर जैसी जगहों पर तो जाते हैं, मगर शायद ही कोई चंदेरी का रुख करता है, जबकि वहां पांच किलोमीटर के दायरे में करीब 350 ऐतिहासिक स्मारक हैं। कल्ले भाई के घर में ऐतिहासिक व प्राचीन पत्थरों, सिक्कों, पत्रों और बर्तनों का अच्छा-खास संग्रह है। वह हर एक सिक्के को पहचानते हैं और आपको बता सकते हैं कि वह किस काल का है। चंदेरी में वह उन ऐतिहासिक जगहों पर ले जा सकते हैं, जिनके बारे में काफी लोगों को मालूम नहीं है। कल्ले भाई चंदेरी के चलते-फिरते एनसाइक्लोपीडिया हैं।
उनकी मदद से इन ऐतिहासिक धरोहरों के पुनप्र्रकाशन के लिए हम नई दिल्ली के नेशनल म्यूजियम के पांडुलिपि विभाग के दो प्रशिक्षुओं को एक महीने के लिए अपने साथ चंदेरी ले गए। दोनों कल्ले भाई की मोटरसाइकिल पर उनके साथ शहर के इर्द-गिर्द के स्मारकों का चक्कर काटते, और उनकी तस्वीरें उतारते। उनके एक महीने के इस परिश्रम का नतीजा थी- 200 पन्नों की किताब- चंदेरी: हिस्ट्री, हेरिटेज, कल्चर। जब हमने चंदेरी में अपना प्रोजेक्ट शुरू किया, तब उन्होंने हमें इतिहास पढ़ाया और हमने उन्हें टेक्नोलॉजी की तालीम दी। धीरे-धीरे उन्होंने कंप्यूटर और कैमरा सीख लिया। आज, वह चंदेरियां की वेबसाइट की देखभाल करते हैं, अपनी किताबों के लिए स्मारकों की तस्वीरें खींचते हैं, वाट्सएप पर बुनकरों के लिए ऑर्डर हासिल करते हैं, सोशल मीडिया के पेजों का प्रबंध करते हैं, बल्कि सैलानियों के लिए गाइड का भी काम करते हैं। वह उर्दू, हिंदी, अरबी, अंग्रेजी और कुछ-कुछ फ्रेंच बोल लेते हैं और गुजराती, बंगाली, ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि में लिख सकते हैं। बावजूद इसके कि छठी जमात के बाद उन्होंने स्कूल में पांव न रखा।
कल्ले भाई एक ऐसे परिवार से हैं, जिसकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। उनके वालिद के पास किताबें खरीदने को पैसे न थे, और कल्ले भाई की पढ़ाई छूट गई। मगर स्कूल छूटने का मतलब यह नहीं कि इतिहास के प्रति उनका जुनून कम हो गया। यह ज्ञान की लालसा ही थी, जिसने उन्हें चंदेरी पर्यटन का ब्रांड गढ़ने, वायरलेस नेटवर्क स्थापित करने, ई-कॉमर्स पोर्टल चलाने और सोशल मीडिया के इस्तेमाल और यहां तक कि स्थानीय बुनकरों के साथ मिलकर बुनाई सीखने को प्रेरित किया।
इसी तरह की सीखने की प्रवृत्ति को हम प्रोत्साहित करते हैं। हम 170 गांवों में काम कर रहे हैं, इनमें से लगभग सभी अलग जुबान बोलते हैं। अंग्रेजी तो छोड़िए, इनमें से बहुत से गांव वाले हिंदी भी नहीं समझते। दुर्भाग्य की बात है कि उनके पारंपरिक ज्ञान और अपने तईं अर्जित सबक की आधुनिक शिक्षा पद्धति में कोई गिनती नहीं है। खुशी की बात यह है कि इनके कंप्यूटर सीखने में आधुनिक शिक्षा या अंग्रेजी न समझने से कोई बाधा नहीं पैदा हुई। एक बार जब वे इसे चलाना सीख जाते हैं, तो इसे कभी नहीं भूलते। ऑनलाइन ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। हमें बस कल्ले भाई जैसी सीखने की लालसा चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)