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वाणी का संयम

अपना विचार बेलौस होकर व्यक्त कर देना हमारे लिए शान की बात है। इसके अनेक रूप मिलते हैं- बयानबाजी, जुमलेबाजी, फिकरेबाजी, अटकलबाजी आदि। जरा-सी जुबान हिली और बात का बतंगड़ बन जाता है। शब्द हमारे स्वभाव का...

वाणी का संयम
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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अपना विचार बेलौस होकर व्यक्त कर देना हमारे लिए शान की बात है। इसके अनेक रूप मिलते हैं- बयानबाजी, जुमलेबाजी, फिकरेबाजी, अटकलबाजी आदि। जरा-सी जुबान हिली और बात का बतंगड़ बन जाता है। शब्द हमारे स्वभाव का पता देते हैं। हम क्या बोलते हैं, कैसे बोलते हैं, इससे हमारे भीतरी संस्कार का पता चलता है। महाभाष्य  में कहा गया है कि एक भी शब्द यदि ठीक से जान लिया जाए, तो वह इस लोक में क्या, परलोक में भी फलदायक है।
एक दौर था, जब बच्चे के जन्म के बाद उसकी जीभ पर कांड़े की कलम से शहद की एक रेखा खींच दी जाती थी, शायद वाणी के अनुशासन और माधुर्य के लिए। सभा में वाणी के चातुर्य की चर्चा होती है। बोलने में दरिद्रता क्यों? पहले स्वागत, नमस्कार और लोक-व्यवहार सिखाया जाता था, लेकिन लोगों ने झूठ को अपनाकर विकृति पैदा कर दी।

कहते हैं कि एक गांव में वाराणसी से पंडितों की बारात आई। गांव वाले अनपढ़ थे। विवाह में शास्त्रार्थ का नियम था। ग्रामीणों ने एक महामूर्ख को पगड़ी, टीका-चंदन लगाकर आसन पर बिठा दिया। वर पक्ष के पंडित ने वेद पर प्रश्न किया। कन्या पक्ष ने कहा कि वेद के प्रश्नोत्तर कान में देंगे। वर पक्ष के महापंडित राजी हुए। कन्या पक्ष के महामूर्ख ने प्रश्नकर्ता के कान में चुन-चुनकर गालियां सुना दीं। वर पक्ष के महापंडित क्रोधावेश में नाचने लगे। कन्या पक्ष ने जीत की ताली बजा दी। बोलना हमें बाहर की दुनिया से जोड़ता है। हम सत्य भी प्रिय बोलें। यही वाणी सरस्वती है, जो अपने मधुर नाद से संपूर्ण सृष्टि को झंकृत कर देती है।

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