शिक्षा को लेकर तो राजनीति होगी ही
हेलियोसेंट्रीज्म (सूर्य के केंद्र में होने व पृथ्वी सहित सभी ग्रहों द्वारा उसकी परिक्रमा करने वाला सिद्धांत) का समर्थन करने के कारण साल 1632 में चर्च ने गैलीलियो को मान्यताओं की मुखालफत करने वाला...
हेलियोसेंट्रीज्म (सूर्य के केंद्र में होने व पृथ्वी सहित सभी ग्रहों द्वारा उसकी परिक्रमा करने वाला सिद्धांत) का समर्थन करने के कारण साल 1632 में चर्च ने गैलीलियो को मान्यताओं की मुखालफत करने वाला घोषित किया, और इसके कारण उन्हें अपनी जिंदगी के अंतिम नौ वर्ष नजरबंदी में बिताने पड़े। चर्च का वह व्यवहार काफी हद तक इस आकलन पर आधारित था कि गैलीलियो ने सिद्धांत का समर्थन करके असल में चर्च प्रशासन पर सवाल खड़े किए हैं। इस तरह के विधर्मी विचारों की स्कूलों या विश्वविद्यालयों में कोई जगह नहीं थी, क्योंकि चर्च का उन पर पूरा नियंत्रण था। अगले दो दशक तक उन शिक्षा संस्थानों में चर्च की मान्यता ही चलती रही, और वैज्ञानिक सिद्धांत पाठ्यक्रम में जगह नहीं पा सका।
एक और उदाहरण। स्कूलों में दुनिया का जो नक्शा दिखाया जाता है, और जिसे गूगल इस्तेमाल करता है, गलत है, और वे यूरोप केंद्रित हैं। एक बहुत बारीक चालाकी इसमें यह है कि गूगल यूरोप को दुनिया के केंद्र में रखता है, मगर इसमें बड़ी भूल देशों और द्वीपों के संबंधित अनुपातों का है। उत्तर यानी यूरोप व उत्तर अमेरिका का जो भूगोल इसमें दर्शाया गया है, वह हास्यास्पद ढंग से वास्तविकता से ज्यादा है। 4.8 करोड़ वर्ग किलोमीटर का उत्तरी हिस्सा दक्षिणी हिस्से के 9.4 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से ज्यादा बड़ा दिखता है। यहां तक कि भौतिक दुनिया का भी अध्ययन-अध्यापन अमूमन राजनीतिक मूल्यों व विकल्पों के आधार पर होता है।
अर्थशास्त्र का एक उदाहरण लेते हैं। 1960 और 70 के दशक के भारत में अर्थशास्त्र की किताबें केंद्रीय योजनाओं के गुण व महालनोबिस माॠडल के रहस्यमय विवरणों से भरी होती थीं, जो आज कौतुहल से देखी जाती हैं। ठीक इसी तरह का आश्चर्य यह है कि आज अर्थशास्त्र की किताबें, जो बाजारवाद की अवधारणा से प्रभावित हैं, उसी तरह वास्तविकता से कटी हुई हैं, जिस तरह हमारी योजना-माॠडल कटी हुई थी।
किसी भी समाज में शिक्षण पाठ्यक्रम राजनीति प्रेरित होता है। यह दो तरफ से काम करता है- पहला, सच्चा ज्ञान क्या है (जैसे योजना माॠडल बनाम बाजारवाद का सिद्धांत) और दूसरा, सार्थक ज्ञान का चुनाव। शिक्षा की प्रक्रिया और उसका संचालन उतना ही राजनीतिक है, जितना कि उसका पाठ्यक्रम। हाल ही में कुछ विश्वविद्यालयों से निकली आवाजें कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं हैं। अनैतिक राजनीति की जरूर आलोचना होनी चाहिए। मगर आश्चर्यजनक यह सोच रही है कि शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति नहीं होनी चाहिए। यह सोच बताती है कि हम शिक्षा को बहुत कम समझ रहे हैं। हमें ऐसी शिक्षा की जरूरत है, जो हमारे देश मेें लोकतंत्र को ताकत दे और भारत को ऐसा राष्ट्र बनाए, जैसा कि संविधान में कहा गया है। छात्रों की योग्यता इस कदर विकसित हो कि वे सोच सकें, और यह शिक्षा निश्चय ही राजनीतिक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)