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कारोबार की दुनिया के नए बदलाव

हम भारतीय कुछ खास शब्दावलियों और बतरस को खूब पसंद करते हैं। 1990 के दशक में भारत और दुनिया भर के कॉरपोरेट हलकों में एक ऐसी ही शब्दावली ‘कोर कॉम्पिटेंसी’खूब प्रचलित हुई। इसे गढ़ने का श्रेय...

कारोबार की दुनिया के नए बदलाव
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 17 Oct 2016 12:34 AM
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हम भारतीय कुछ खास शब्दावलियों और बतरस को खूब पसंद करते हैं। 1990 के दशक में भारत और दुनिया भर के कॉरपोरेट हलकों में एक ऐसी ही शब्दावली ‘कोर कॉम्पिटेंसी’खूब प्रचलित हुई। इसे गढ़ने का श्रेय सीके प्रह्लाद और गैरी हैमेल को जाता है, जिन्होंने 1990 में हॉर्वर्ड बिजनेस रिव्यू में प्रकाशित अपने लेख में इसका पहली बार इस्तेमाल किया था। इसने हलचल मचा दी, क्योंकि तब तक भारत में (और संभवत: दुनिया भर में भी) सर्वाधिक सफल कंपनियां कई तरह के कारोबार करती थीं। 
कमोबेश यही वह वक्त था, जब प्रह्लाद को भारत में मान्यता मिलनी शुरू हुई, खासकर दक्षिण भारत में, जहां उन्होंने हर साल कारोबारियों को विचार-विमर्श के लिए इकट्ठा करना शुरू किया था। वह और कुछ अन्य लोग इस समूह को अनौपचारिक रूप से ‘विंडसर क्लब’ कहा करते थे, क्योंकि यह बैठक विंडसर होटल में हुआ करती थी।

यह नाम बंबई (अब मुंबई) और नई दिल्ली के कारोबारियों के उस बंबई क्लब के संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाता था, जिसके सदस्य उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के पक्ष में पूरी तरह से नहीं थे। प्रह्लाद और उनके समर्थक अपने को इस गुट से अधिक प्रगतिशील मानते थे। वक्त के साथ बंबई क्लब के रुख में भी बदलाव आया। मैनेजमेंट गुरु का दर्जा हासिल कर लेने के बाद प्रह्लाद की चौतरफा मांग बढ़ गई। और सामने आए नए अवसर को भुनाने के लिए तमाम भारतीय कंपनियां मिली-जुली प्रतिक्रिया के साथ नए-नए क्षेत्रों में उतरने लगीं।

साल 1997 में इस ‘कोर कॉम्पिटेंसी’ की संकल्पना की पहली बार जोरदार मुखालफत हुई। विरोध के ये स्वर कृष्णा जी पलेपू और तरुण खन्ना के थे, जिन्होंने हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू  में ही ‘ह्वाई फोकस्ड स्ट्रेटजीज मे बी रॉन्ग फॉर इमर्जिंग मार्केट’ शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में इस अवधारणा पर सवाल उठाए। उनका तर्क था कि सार्वजनिक संस्थान और इन्फ्रास्ट्रक्चर के अभाव में और जिस तरह की सहायताएं इनसे मिलती हैं, उसकी कमी के कारण उभरते बाजारों में कई कंपनियों को अपने बूते ये सुविधाएं जुटानी पड़ीं। यही वजह थी कि भारत में भी कुछ औद्योगिक समूहों ने अपने मूल कारोबार से परे जाकर अन्य क्षेत्रों में अपने पैर फैलाए।

विंडसर क्लब की कुछ बैठकों में मैं शामिल रहा, और हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू  में इस लेख के प्रकाशित होने के ठीक बाद तरुण खन्ना से मैंने नई दिल्ली में मुलाकातभी की थी। मेरा मानना है कि कुछ मायनों में साल 2016  ‘डायवर्सिफिकेशन’ के लिहाज से महत्वपूर्ण है, इसलिए हमें 1990 के दशक में भारतीय औद्योगिक समूहों का इस संदर्भ में कैसा अनुभव रहा, यह जानना काफी जरूरी है। नए-नए क्षेत्रों में कंपनियों के उतरने की पहली कवायद 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में अपने-आप हुई।  इसे हम डायवर्सिफिकेशन का पहला दौर मानते हैं। तब नए-नए अवसर सामने आ रहे थे और कंपनियां उनमें से ज्यादातर को भुनाने के लिए हाथ-पांव मार रही थीं। उस दौर की विस्तार से चर्चा यहां जरूरी नहीं है, क्योंकि इस लेख का मूल मकसद दो समूहों की ओर आपका ध्यान खींचना है और यह बताना कि डायवर्सिफिकेशन के दूसरे दौर में उन्होंने क्या किया? हालांकि मैं इस पहले दौर की चर्चा कभी जरूर करूंगा, क्योंकि इसके नतीजे कई स्थापित कारोबारी समूहों की गिरावट व पतन के रूप में निकले हैं।

खैर, नए क्षेत्र में कारोबार के विस्तार का दूसरा दौर 1990 के दशक के अंत और 2000 के दशक के मध्य में आया। तब तक, प्रगतिशील कारोबारी समूहों ने आधुनिक मैनेजमेंट तकनीक व सूचना प्रौद्योगिकी का फायदा उठाना शुरू कर दिया था। साथ ही, उनके पास एक स्पष्ट नजरिया था कि वे क्या करना चाहते हैं? बहरहाल, पहला समूह अनलजीत सिंह की मैक्स इंडिया है। साल 1998 में इसने अपना दूरसंचार कारोबार हांगकांग की हचिंसन व्हाम्पोआ को 561 करोड़ रुपये की बड़ी राशि में बेचा। उस समय बीमा और हेल्थकेयर, दो नए क्षेत्र उभर रहे थे और अनलजीत सिंह कुछ पूंजी इन क्षेत्रों में लगाना चाहते थे। मैक्स समूह दूरसंचार के क्षेत्र में साल 1993-94 में उतरा था। तब यह क्षेत्र आकार ले रहा था। कहने की जरूरत नहीं कि इतना बड़ा सौदा डायवर्सिफिकेशन के पहले दौर की सफलता का सूचक था।

इसी के बरक्स, साल 2000 में आदित्य बिरला ग्रुप ने कोट्स विएला से मदुरा गार्मेंट्स का सौदा 236 करोड़ रुपये में किया और ब्रांडेड कपड़ों के बाजार में कदम रखा। उसी साल सन लाइफ फाइनेंशियल के साथ साझेदारी करके यह समूह बीमा क्षेत्र में भी उतरा और फिर सूचना प्रौद्योगिकी और बैक ऑफिस सर्विस बिजनेस के क्षेत्र में भी इसने अपने पांव पसार लिए। दूरसंचार क्षेत्र में तो वह बदलाव के उस पहले दौर में ही उतर गया था। 2005 में आदित्य बिरला ग्रुप ने इंडियन रेयॉन ऐंड इंडस्ट्रीज लिमिटेड को नया नाम देने का फैसला लिया और वित्त, कपड़ा, दूरसंचार व आईटी में अपने नए कारोबार के लिए इसे नियंत्रक कंपनी बना दिया। नई कंपनी का नाम आदित्य बिरला नूवो लिमिटेड रखा गया। इसके बाद जल्दी ही इसने दूरसंचार क्षेत्र के अपनी दोनों साझीदार कंपनियों- एटीऐंडटी और टाटा ग्रुप के शेयर भी खरीद लिए।

करीब डेढ़ दशक के बाद अगस्त, 2016 में ये दोनों समूह-मैक्स व आदित्य बिरला- बिल्कुल नए-नए कारोबार को लेकर गंभीर दिखे हैं, और कुछ चीजें उन्होंने छोड़ी भी हैं।  अब तक आदित्य बिरला नूवो कंपनी आईटी कारोबार से बाहर निकल चुकी है और ब्रांडेड कपड़े व दूरसंचार के अपने कारोबार का विस्तार करते हुए इससे जुड़ी कंपनियों को स्वतंत्र रूप से सूचीबद्ध कर चुकी है। इसने वित्तीय सेवा से जुड़े कारोबार को भी अलग करने का फैसला लिया है और ग्रासिम इंडस्ट्रीज लिमिटेड के साथ विलय कर लिया। लगभग इसी दौरान, मैक्स ग्रुप ने जीवन बीमा से जुड़े अपने कारोबार का विलय एचडीएफसी स्टैंडर्ड लाइफ से साथ 850 करोड़ रुपये की गैर-प्रतिस्पद्र्धी शुल्क के साथ किया है और नई कंपनी में 6.5 फीसदी की हिस्सेदारी रखी है। हालांकि अनलजीत सिंह का हेल्थकेयर बिजनेस लगातार आगे बढ़ रहा है।

दोनों समूहों ने अपेक्षाकृत नए कारोबारी क्षेत्रों में कदम रखा, और इस साल दोनों ने सफल ‘अंत’ देखा। आदित्य बिरला ग्रुप के लिए इसका अर्थ अपने सभी कारोबार को स्वतंत्र कंपनियों के रूप में विस्तार देना है, तो मैक्स के लिए इसका मतलब उससे बाहर निकलना है। मगर मेरे लिए इस घटनाक्रम से तीन बातें निकलती हैं। पहली, किसी कारोबार से बाहर निकलना हमेशा बुरा नहीं होता, अलबत्ता कुछ मामलों में तो यह विकल्प काफी बेहतर है। दूसरी, स्वतंत्र निकाय के रूप में नए कारोबार की शुरुआत के फायदे हैं, और तीसरी, भारत में किसी कारोबार के परिपक्व होने में 15 से 20 साल का वक्त लगता है।

इस तीसरी बात की पुष्टि महिंद्रा ग्रुप के अनुभव से भी होती है, जिसने सफलतापूर्वक नए क्षेत्रों में अपना कारोबार बढ़ाया है। दिलचस्प है कि इसी समय-सीमा में भारतीय अर्थव्यवस्था लगभग चार गुना तक बढ़ चुकी है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि बेशक इन कारोबारों को आर्थिक विकास का लाभ मिला है, मगर उन्होंने इसमें अपना योगदान भी दिया है। अब तो इनमें से कई समूह कारोबार-विस्तार के तीसरे दौर की पटकथा भी रचने लगे हैं। 

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