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नेपाल में जगी है नई उम्मीद

नेपाल में सत्ता के गलियारे का मन-मिजाज बदला है। मूल के आधार पर भेदभाव और टकराव की राजनीति से बाहर आकर आपसी सहमति और विश्वास के पथ पर कदम बढ़े हैं। नागरिकता, समान अधिकार, संसद में प्रतिनिधित्व  और...

नेपाल में जगी है नई उम्मीद
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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नेपाल में सत्ता के गलियारे का मन-मिजाज बदला है। मूल के आधार पर भेदभाव और टकराव की राजनीति से बाहर आकर आपसी सहमति और विश्वास के पथ पर कदम बढ़े हैं। नागरिकता, समान अधिकार, संसद में प्रतिनिधित्व  और राज्यों के गठन जैसे विवादित मुद्दे को सुलझाने और भारत से संबंध मजबूत करने की इच्छाशक्ति अरसा बाद नजर आ रही है। यह संभव हुआ है अपनी दूसरी पारी में पुष्पकमल दहाल प्रचंड के नए अवतार और उन्हें नेपाली कांग्रेस का साथ मिलने से। हालांकि राह अब भी आसान नहीं है। मधेसियों, थारुओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं का दिल जीतने के लिए प्रचंड सरकार द्वारा लाए गए संविधान संशोधन प्रस्तावों को कड़े विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। भारत विरोध की धुरी पर खड़ी एमाले (एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी) ने आठ छोटे दलों का मोर्चा बनाकर संशोधन प्रस्तावों को चुनौती दी है। प्रचंड सरकार के पास बहुमत तो है, लेकिन संशोधन प्रस्तावों को पारित कराने के लिए अपेक्षित दो तिहाई बहुमत नहीं है।

नेपाल में एक दशक तक चले माओवादी गुरिल्ला युद्ध के जनक रहे प्रचंड की पहचान भारत विरोधी की रही है। 2008 में जब वह पहली बार प्रधानमंत्री बने तो उनके तेवर कुछ और ही थे। वह खुद मानते भी हैं कि उस समय क्रांति और युद्ध का मेरे दिमाग पर गहरा असर था। राजनीति के मिजाज को अच्छी तरह समझने के लिए उन्हें समय चाहिए था। बीते चार महीने के उनके इस छोटे कार्यकाल में यह दिखा भी। प्रधानमंत्री बनने के ठीक एक माह बाद वह दिल्ली यात्रा पर आए। इधर, उन्होंने कई ऐसे कदम उठाए हैं, जिनने बदले हालात के संकेत दिए हैं। उन्होंने एक तरफ भारत से संबंध बेहतर करने तो दूसरी तरफ देश के अंदर मधेसियों और थारुओं के असंतोष के संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की पहल की है। इसी का नतीजा है कि लंबे अरसे के बाद नेपाल के तराई इलाके में अमन-चैन है और लोगों की आंखों में उम्मीदें जगीं हैं।

नेपाल बीते ढाई दशक से अशांति और राजनीतिक अस्थिरता से जूझता रहा है। राजशाही के अंत के बाद वहां अब तक कोई भी ऐसी सरकार नहीं बनी जो अपना कार्यकाल पूरा कर सकी हो। आठ साल पहले 2008 में वहां पहली संविधान सभा के अस्तित्व में आने के साथ राजशाही की औपचारिक विदाई हो गई। हालांकि संविधान सभा के गठन के बाद भी स्थिरता नेपाल के हिस्से में नहीं आई है। पहली संविधान सभा संविधान नहीं दे पाई, जबकि इसके कार्यकाल का दो बार एक- एक साल के लिए विस्तार भी हुआ। दूसरी संविधान सभा के गठन के तीन साल हुए हैं और इस तीन साल में नेपाल ने तीन प्रधानमंत्री और दो राष्ट्रपति देख लिए। 20 सितंबर 2015 को 67 साल बाद नेपाल का नया संविधान पारित हुआ। उस समय सुशील कोईराला प्रधानमंत्री और रामवरण यादव राष्ट्रपति थे। कोईराला 10 फरवरी 2014 को प्रधानमंत्री बने और 15 अक्टूबर 2015 को वहां तख्ता पलट हो गया। इनके बाद केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बने और तीन अगस्त 2016 को उनकी भी विदाई हो गई। प्रचंड ने 14 अगस्त को बागडोर संभाली है। नया संविधान पारित होते ही इसके अनेक प्रावधानों के खिलाफ नेपाल के बड़े हिस्से में हिंसा, प्रदर्शन, धरना का दौर शुरू हो गया था। नए संविधान से वहां के मधेसियों, थारुओं, दलितों और अल्पसंख्यकों को अपना वजूद खतरे में नजर आने लगा। वह अपना अधिकार पाने के लिए सड़कों पर उतर आए। पुलिस को अनेक स्थानों पर गोलियां चलानी पड़ी। कोईराला ने विरोध के इस ताप को महसूस किया था और मधेसी दलों से बातचीत कर समाधान निकालने की पहल भी शुरू की। नया संविधान पारित होने के बीस दिन बाद ही उनकी विदाई हो गई। उनके हटने के बाद केपी शर्मा ओली के तेवर ने रही- सही उम्मीदें भी खत्म कर दी। इस अर्थ में प्रचंड ने न केवल गंभीर पहल की है, बल्कि वह अपने स्टैंड पर कायम भी हैं।

नेपाल के नए संविधान के अनेकों प्रावधानों पर वहां के मधेसी और जनजातीय समुदाय को सख्त ऐतराज था। संविधान में देश को संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया लेकिन राज्यों को अधिकार नहीं दिए गए। जो सात प्रदेश बनाए गए, उनके सीमांकन से भी इन दोनों समुदाय में बेहद नाराजगी रही है। मधेस में दो राज्य बनाने की बात थी, पर भारत की सीमा से एक कड़ी में लगे आठ जिलों का एक प्रदेश बनाया गया। बाकी जिलों को छह भाग में बांटकर पहाड़ी राज्यों में शामिल कर दिया गया। इससे उनमें मधेसी अल्पसंख्यक बने रहेंगे। जनजाती बहुल थरुहट को अलग राज्य नहीं बनाया गया। निर्वाचन क्षेत्रों का गठन क्षेत्रफल के आधार पर करने का प्रावधान किया गया। नेपाल के 17 प्रतिशत क्षेत्रफल में करीब 50 प्रतिशत मधेसी आबादी बसती है। बाकी पहाड़ी इलाके हैं। जाहिर है क्षेत्रफल के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र बनते तो संसद में मधेसियों का प्रतिनिधित्व सिमट जाता।

प्रचंड ने सत्ता संभालने के एक महीने बाद ही संविधान के ऐसे प्रावधानों में संशोधन की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। सबसे पहला संशोधन निर्वाचन क्षेत्र के गठन को लेकर किया गया। 29 नवंबर को लाए गए संशोधन प्रस्तावों में विदेशी महिला की नेपाल में शादी होने पर अंगीकृत नागरिकता देने, राज्यसभा की कुल 56 सीटों में 35 का निर्वाचन जनसंख्या के आधार पर और प्रत्येक राज्य से तीन सीटों में एक महिला, एक दलित व एक अपंग या अल्पसंख्यक के लिए आरक्षित करने जैसे प्रावधान शामिल हैं। इस प्रकार भारत या अन्य देशों की नेपाल में ब्याही बेटी के संवैधानिक पदों पर बहाली की बाधा भी दूर हो गई है।
बीते साल जिन तीन बड़े दलों ने आपस में सहमति बनाकर बहुमत के बल पर नया संविधान पारित कराया था, उनमें सिर्फ एमाले आज एक तरफ है और बाकी दो संशोधन के पक्षधर हैं। इस मोर्चे पर पुष्पकमल दहाल प्रचंड को कांग्रेस के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भटराई की नई शक्ति पार्टी का भी साथ मिल रहा है। मधेसी दलों का समर्थन तो है ही। बावजूद इसके सत्ता में हिस्सेदारी और भारत से संबंधों को नया आयाम देने पर सहमति बनाने की राह में रोड़े भी कम नहीं हैं। बीते दो दशक में नेपाल की राजनीति में भारत विरोध और मधेस के हितों को भारत से जोड़कर नकारने की प्रवृति एक फैशन की तरह बन गई है। अनेक नेताओं और दलों की राजनीति इसी वैसाखी पर टिकी है, इसलिए वह सत्ता के इस नए मिजाज को सहज स्वीकार नहीं करेंगे। नेपाल सरकार के पास बहुत समय भी नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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