अवकाश की जरूरत
वह स्थिर नहीं बैठते। हमेशा दौड़-भाग करते रहते हैं। क्या वे सही हैं? जब भी आप व्यस्तता को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, शारीरिक तौर पर ही नहीं, मानसिक तौर पर भी गड़बड़ा जाते हैं। व्यस्तता हो सकता है...
वह स्थिर नहीं बैठते। हमेशा दौड़-भाग करते रहते हैं। क्या वे सही हैं? जब भी आप व्यस्तता को जरूरत से ज्यादा महत्व देते हैं, शारीरिक तौर पर ही नहीं, मानसिक तौर पर भी गड़बड़ा जाते हैं। व्यस्तता हो सकता है कि आपके पास पैसा और सामाजिक प्रतिष्ठा ले आए, लेकिन यह शांति की गारंटी कभी नहीं दे सकती।
शांति के लिए तो आंतरिक विस्तार चाहिए। इतना विस्तार, जिसमें प्रकृति की हर हलचल समा सके। मनोवैज्ञानिक नील मिलर इस मसले पर कहते हैं- आज की सबसे बड़ी समस्या अवकाश का न होना है। वह कहते हैं कि अवकाश मस्तिष्क की रिचार्जिंग प्रक्रिया है। इससे न्यूरॉन को शक्ति मिलती है और आप जीवंत महसूस करते हैं। लेकिन अब वह जीवंतता कहां है? सच यह है कि जैसे-जैसे हम समृद्ध हुए, हमारी जीवंतता खोती चली गई।
हमने ढेरों सुख-सुविधाएं तो पा लीं, लेकिन अवकाश खो दिया। हम हजारों रुपये खर्च करके छुट्टियां मनाने में जुटे, लेकिन इससे भी जीवंतता हासिल नहीं हुई, क्योंकि सही मायने में यह अवकाश नहीं है। दरअसल, अवकाश कभी प्रयोजनमूलक नहीं होता। अवकाश वही है, जिसका कोई उद्देश्य न हो। जैसे- कहीं यूं ही निकल जाना। धूप में अलसाए घंटों पड़े रहना। दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाना, आदि।
दार्शनिकों और चिंतकों ने एक अलग प्रकार के अवकाश के बारे में भी बताया है। वह है आंतरिक अवकाश। यह तभी हासिल होता है, जब आप सांस का कंपन, हवा का शरीर में आना और उसका टूटना महसूस करें। यह करीब-करीब ध्यान की स्थिति है, लेकिन ऐसा आप चलते-फिरते भी महसूस कर सकते हैं। देश में आईटी क्रांति के अगुवा रहे नारायण मूर्ति कहते हैं कि समय को साधने का मतलब यह नहीं है कि अवकाश को तिलांजलि दे दी जाए। यह आपकी व्यस्ततम दिनचर्या के बीच भी हासिल की जा सकती है। आप हासिल नहीं कर पा रहे, तो समझें कि चूक रहे हैं।
नीरज कुमार तिवारी