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मन मथुरा तन वृंदावन है लंपटपन के मौसम में

होली के दिनों में अगर किसी का मन न मचले, पांव न फिसले, तो समझो कि उसके मनुष्य होने में ही कुछ कमी है। जो खिले नहीं, वह गुलाब कैसा? जो महके नहीं, वह चमेली कैसी? गरीबों को भूख नहीं सताती, वह तो उनकी...

मन मथुरा तन वृंदावन है लंपटपन के मौसम में
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 18 Mar 2016 09:22 PM
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होली के दिनों में अगर किसी का मन न मचले, पांव न फिसले, तो समझो कि उसके मनुष्य होने में ही कुछ कमी है। जो खिले नहीं, वह गुलाब कैसा? जो महके नहीं, वह चमेली कैसी? गरीबों को भूख नहीं सताती, वह तो उनकी आदत होती है। जो फागुन में मदमाता नहीं, समझो उसका बीज खराब था। कहा भी है कि- कलयुग में कैसी रामायण? होली में बनवास लिए हो। फागुन में संन्यास लिए हो। काहे सत्यानाश किए हो। जो कंबल तक को रंगीन न कर दे, वह होली कैसी? होली में जब हरा अबीर व लाल गुलाल एक-दूजे के गले मिलते हैं, तो लगता है, जैसे ये
हिन्दुस्तान और पाकिस्तान हों। जब चारों तरफ रंग बरस रहा हो, तो लगता है कि जैसे सावन बरस रहा हो।
होली में किए गए मासूम गुनाहों को कानून बुरा नहीं मानता। होली में गंदगी इसलिए उछाली जाती है कि नगर निगम सफाई पर ध्यान दे। ऐसे में, मन में लंपटता न आए, तो समझो गृहस्थी में कोई खोट है। अंखियों में रेशम के रंगीन डोरे खिंचने लगें, तो समझो आंखों में मोतियाबिंद है। फागुन में बड़े-बूढ़े बालों में खिजाब न लगाने लगें, तो समझो कि अब उन्हें यमराज मिस्ड काॠल करने लगा है।
मनमोहन मायूस खडे़ हैं- अब मेरी क्या होली? मुरली मनोहर सोच रहे हैं- जो होनी थी हो ली? आडवाणी चुपचाप सोचते- अब क्या खेलूं होली? मोदी जी खामोश कह रहे- किससे मैं खेलूं होली? जीवन में राधा-रुक्मणी न हों, तो मन कंगाल सुदामा जैसा होने लगता है। इसीलिए तो इंडिया में रहने की तबियत नहीं होती।

होली में अक्सर ऐसे भोले-भाले अपराध करने की छूट होती है, जो अन्य दिनों में पाप कहलाएं। रंग डालना इन दिनों लंपटपने की ओट होता है। होली के दिन किसी दारोगा पर रंग डालना संविधान का हनन करना नहीं माना जाता है। होली में कमीनेपन को थोड़ा डाइल्यूट करके नटखटपन कहा जाने लगता है। इन्हीं दिनों पति के सफेद कुरते पर अगर पान के छींटें पड़े हों, तो पत्नी बुरा नहीं मानती। आपको होली मुबारक। इस बार आपकी जमकर ऐसी होली हो कि महीनों नाखूनों पर रंग चढ़ा रहे।

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