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जन-प्रतिनिधियों की योग्यता के तर्क

उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा सरकार के उस कानून को सांविधानिक रूप से सही माना है, जिसमें पंचायत चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की गई है। मगर उसके निर्णय की चौतरफा आलोचना शुरू हो...

जन-प्रतिनिधियों की योग्यता के तर्क
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 16 Dec 2015 09:23 PM
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उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा सरकार के उस कानून को सांविधानिक रूप से सही माना है, जिसमें पंचायत चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की गई है। मगर उसके निर्णय की चौतरफा आलोचना शुरू हो गई। न्यायालय ने कहा है कि शिक्षा का जो महत्व है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता, साथ ही इससे भी इनकार नहीं हो सकता कि राज्य विधानसभा के पास ऐसा कानून बनाने की शक्ति है।

न्यायालय ने कहा है कि संविधान में ही कुछ पदों के लिए अयोग्यताओं का वर्णन है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि एक समर्थ वैधानिक संस्था अन्य अयोग्यताओं को जोड़ने के लिए सक्षम नहीं है। न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता के साथ ही इस कानून के तहत हरियाणा में पंचायत चुनाव वही लड़ सकता है, जो किसी आपराधिक मामले में सजायाफ्ता न हो, उस पर कोई कर्ज न हो, बिजली भुगतान बकाया न हो, उसके घर में शौचालय जरूर हो।

इस निर्णय की आलोचना का तर्क यह है कि इससे समाज का एक बड़ा वर्ग चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो जाएगा। कहा जा रहा है कि किसी का अशिक्षित रह जाना शासन की विफलता है, और शिक्षा व देनदारी के बहाने निरंकुश सरकारें समाज के दबे-कुचले वर्गों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर रखती रही हैं। कुछ ऐसे ही तर्कों से अमेरिका में अश्वेतों को लंबे समय तक मताधिकार से वंचित रखा गया था। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में भी मताधिकार स्नातक और करदाताओं को प्राप्त था, जिनकी तादाद लगभग 15 प्रतिशत थी।

हरियाणा के इस कानून की आलोचना इस आधार पर भी हो रही है कि संविधान में ही 'सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों' को पहचान मिली है, किंतु उसके साथ भेदभाव हो रहा है। संविधान सभा में भी सांसदों व विधायकों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता पर बहस हुई थी, किंतु इसे इस कारण छोड़ दिया गया कि इससे कमजोर वर्ग के लोग प्रभावित होंगे। यह भी सच है कि देश में कई ऐसे मंत्री और मुख्यमंत्री हुए हैं, जिनकी औपचारिक शिक्षा मामूली थी, परंतु वे काफी कुशल प्रशासक माने गए। वे अपवाद हैं, और उन्हें औपचारिक शिक्षा भले न मिली हो, किंतु उन्होंने स्वाध्याय के बल पर काफी ज्ञान अर्जित किया। हमारे कुछ प्रधानमंत्री भी ऐसे हुए, जो स्नातक नहीं थे, पर इससे उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। भारत ही नहीं, दुनिया भर में ऐसे कई नेता हुए हैं।

दिल्ली उच्च न्यायालय में बलजीत सिंह बनाम चुनाव आयोग के मामले में यह मांग की गई थी कि संसद और विधानसभाओं में शपथ लेने की अनिवार्यता का अर्थ है कि शैक्षणिक योग्यता निर्धारित की जानी चाहिए। तब न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया था। पर संसद चाहे, तो ऐसा कानून बना सकती है। संविधान के लागू हुए साढ़े छह दशक हो चुके हैं और परिस्थितियां काफी बदली हैं। इसलिए अब ऐसा कोई कानून बनाना भेदभाव नहीं माना जाना चाहिए।
     (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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