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अपनी ही नादानियों का मारा यूएन

अमेरिका के सनकी लोगों द्वारा विदेशी साजिश की जिन तमाम कहानियों का अनुमोदन किया जाता रहा है, उनमें से एक कहानी मुझे अक्सर ठहाके लगाने को बाध्य करती है। यह कहानी इस धारणा की उपज है कि संयुक्त राष्ट्र...

अपनी ही नादानियों का मारा यूएन
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 25 Apr 2017 11:10 PM
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अमेरिका के सनकी लोगों द्वारा विदेशी साजिश की जिन तमाम कहानियों का अनुमोदन किया जाता रहा है, उनमें से एक कहानी मुझे अक्सर ठहाके लगाने को बाध्य करती है। यह कहानी इस धारणा की उपज है कि संयुक्त राष्ट्र एक ‘शैडो’ विश्व सरकार है, जो ह्वाइट हाउस व अमेरिकी कांग्रेस को नियंत्रित करने और उनके काफी अहम अधिकारों को खत्म करने के षड्यंत्र रच रही है। मसलन, अपने पास बंदूक रखने और औरतों के अपने शरीर की मालकिन होने के अधिकार को मिटाना चाहती है। अगर आपका संयुक्त राष्ट्र से सीधा वास्ता रहा हो या फिर आपने इसकी तमाम नेकनीयत कोशिशों को पिटते हुए देखा हो, तो यकीनन अमेरिकियों की यह सोच आपको हंसाएगी। ह्वाइट हाउस को नियंत्रित करने की तो छोड़िए, संयुक्त राष्ट्र मेरे नई दिल्ली स्थित अपार्टमेंट को भी मुझसे तब तक नहीं ले सकता, जब तक कि इसके अनाड़ी नौकरशाहों द्वारा मैं विवश न कर दिया जाऊं।

हाल के वर्षों में इस सिरमौर विश्व संगठन ने दुनिया के दुखों को दूर करने के लिए जो कोशिशें की हैं, वे काफी हास्यास्पद रहीं। याद कीजिए 2003 के उस प्रहसन को, जब इसने लीबिया (जी हां, मुअम्मर गद्दाफी के लीबिया) को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष चुना था! या फिर 2012 के उस बेढ़ब फैसले पर गौर कीजिए, जब संयुक्त राष्ट्र के विश्व पर्यटन संगठन ने जिंबाब्वे के रॉबर्ट मुगाबे को बतौर ‘पर्यटन नेता’ अनुमोदित किया था। 

पिछले सप्ताह, इसने अपने एक और मूर्खतापूर्ण फैसले से दुनिया भर को खुद पर ठहाके लगाने का मौका दिया, जब उसने यह घोषणा की कि नए मुल्कों ने ‘कमिशन ऑन द स्टेटस ऑफ वूमेन’ में बतौर सदस्य सऊदी अरब का चुनाव किया है। ‘यूएन वाच’ नामक निगरानी संगठन के मुखिया हिलेल नोयर के मुताबिक, ‘औरतों के हक की हिफाजत के लिए सऊदी अरब का चुनाव ठीक वैसा ही है, जैसे किसी मशालची को शहर के अग्नि शमन विभाग का मुखिया बना दिया जाए।’ हिलेल ने याद दिलाया कि रियाद की हुकूमत कहती है कि हरेक सऊदी औरत का ‘एक मर्द गार्जियन होना चाहिए, जो उसके हवाले से मुश्किल फैसले ले सके, उसकी पैदाइश से मौत तक उसे नियंत्रित कर सके।’ उन्होंने यह भी जोड़ा कि औरतों के ‘हक’ में सऊदी अरब ने एक और फैसला कर रखा है कि उनकी कार ड्राइविंग पर पाबंदी लगा दी है।

बहरहाल, अब बहुत कटाक्ष हो गया। दुनिया के लिए इस बात पर हंसना आसान है, कम से कम हम जैसे देशों में रहने वालों के लिए, जहां कानून (और कई मामलों में समाज) औरतों को मर्दों के बराबर अधिकार देता है। लेकिन महिला आयोग में सऊदी अरब को शामिल करने के गंभीर नतीजे निकलेंगे।

पहला, सऊदी महिलाओं की मर्दों के बराबर हक की पहले से कमजोर लड़ाई और शक्तिहीन हो जाएगी। अगर आप यह सोचते हैं कि आयोग की सदस्यता सऊदी अरब पर कुछ दबाव बनाएगी, और उसे शर्मसार करेगी कि वह अपने मुल्क की आधी आबादी के हक में कुछ सही कदम उठाए, तो इस बारे में फिर से सोचिए। अलोकतांत्रिक और जालिम हुकूमतें नैतिक दबावों में कदम नहीं उठातीं और न ही कभी शर्मिंदा होती हैं। आप भूले न होंगे, साल 2003 के बाद गद्दाफी ने अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड को दुरुस्त करने के लिए कुछ भी नहीं किया था।

दूसरा, इससे दुनिया को एक खराब संदेश जाएगा, और यह दमनकारी हुकूमतों व औरतों पर जुल्म ढाने वाली संस्थाओं को आश्वस्त करने वाला ही होगा। सऊदी अरब महिला-द्वेषी देशों का सिरमौर हो सकता है, मगर ऐसे और भी कई देश हैं, जो अब यह महसूस करेंगे कि उनकी नीतियों को संयुक्त राष्ट्र से कुछ अनुमोदन मिल गया है। हरेक देश के कट्टर धार्मिक-राजनीतिक समूह इसे अपने प्रतिगामी नजरिये के समर्थन के तौर पर पेश करेंगे।

तीसरे, यह कदम खुद आयोग के कार्यों को कमजोर करेगा। आखिरकार कौन इस संस्था की ज्यूरी के फैसले को गंभीरता से लेगा, जब इसका एक सदस्य खुद आरोपी के साथ खड़ा दिखे? और अंतत: इससे खुद संयुक्त राष्ट्र की साख को धक्का लगेगा, क्योंकि यह कदम उन लोगों की इस धारणा को ही मजबूत बनाएगी, जो यह दलील देते हैं कि यह वैश्विक संगठन समझौतापरस्त है, सच्चाई से इसका वास्ता नहीं है और इसके पर (बजट) कतरने की जरूरत है। खासकर अमेरिका में ऐसी ही सोच है। और यह सोच सिर्फ सनकी अमेरिकियों की नहीं है, जो संयुक्त राष्ट्र को संदेह की नजरों से देखते हैं: रिपब्लिकन पार्टी का एक बड़ा धड़ा भी ऐसा ही ख्याल रखता है। यह वह पार्टी है, जिसका नियंत्रण अब ह्वाइट हाउस और कांग्रेस, दोनों पर है। खुद राष्ट्रपति ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र के बारे में अपनी बेबाक राय देते हुए कहा है कि ‘यह महज एक क्लब है, जहां लोग साथ-साथ बैठते हैं, बातें करते हैं और अच्छा वक्त बिताते हैं।’ महिला आयोग के लिए सऊदी अरब के चयन से दुनिया भर में जो इसकी बदनामी हुई है, उससे डोनाल्ड टं्रप की धारणा और ठोस ही होगी।

संयुक्त राष्ट्र के लिए यह वाकई काफी बुरा वक्त है, उसने एक और नादानी करके  दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। ट्रंप प्रशासन तो पहले ही अमेरिका से उसे मिलने वाली वित्तीय व अन्य सहायताओं में कटौती पर विचार कर रहा है। अमेरिका सालाना तीन अरब डॉलर की वित्तीय मदद उसे मुहैया कराता है, जो संयुक्त राष्ट्र के कुल खर्च का 22 फीसदी है, और इससे भी अहम शांति अभियानों में उसकी 29 प्रतिशत की भागीदारी है। 

बहुत मुमकिन है कि संयुक्त राष्ट्र यह दलील पेश करे कि ज्यादातर आयोगों की सदस्यता तय करने पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और सऊदी अरब का चुनाव गोपनीय बैलेट वोटिंग के जरिये हुआ है। लेकिन इससे उसके आलोचकों की इस बात को ही बल मिलेगा कि यह न सिर्फ एक अक्षम संगठन है, बल्कि शक्तिहीन भी है। अगर नियम-कायदे इस तरह के बेहूदे फैसले को संभव बना रहे हैं, तो संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व, इसके महासचिव एंटोनियो गुटेरस को सदस्य देशों का आह्वान करना चाहिए कि वे इन नियमों को बदलें।

बहरहाल, अब एक बार फिर तिरछी नजर से इसे देखते हैं! क्या इसी नजरिये के तहत उसे रूस को चुनाव सहायता विभाग का प्रमुख नियुक्त नहीं कर देना चाहिए या तुर्की के सदर रिजेप तैयिप एर्दोआन को ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ पर न्यूयॉर्क में आयोजित कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए नहीं बुलाना चाहिए या फिर उत्तर कोरिया के किम जोंग-उन को इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी का मुखिया नहीं बना देना चाहिए?

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