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हमारी बड़ी परीक्षा है अफगानिस्तान

अफगानिस्तान के जलालाबाद में एक बार फिर भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ है। इस तरह के हमले वहां क्यों हो रहे हैं? इसकी पहली और सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान है। इस्लामाबाद नहीं चाहता कि उसकी सहमति के...

हमारी बड़ी परीक्षा है अफगानिस्तान
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 04 Mar 2016 12:30 AM
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अफगानिस्तान के जलालाबाद में एक बार फिर भारतीय वाणिज्य दूतावास पर हमला हुआ है। इस तरह के हमले वहां क्यों हो रहे हैं? इसकी पहली और सबसे बड़ी वजह पाकिस्तान है। इस्लामाबाद नहीं चाहता कि उसकी सहमति के बिना कोई दूसरा देश अफगानिस्तान में अपना आधार बनाए। वह वहां अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। उसे लगता है कि भारत जैसे देश उसकी अफगान-नीति को प्रभावित कर सकते हैं।

इसलिए भारतीय हित जिन-जिन जगहों से जुड़े हैं, वहां-वहां हमले हो रहे हैं। काबुल में बैठी सरकार और खुफिया एजेंसियां भी मानती हैं कि वहां हो रही आतंकी घटनाओं में पाकिस्तान समर्थित संगठनों का प्रत्यक्ष और परोक्ष हाथ है। हालांकि हमले पाकिस्तानी प्रतिष्ठानों पर भी होते हैं, मगर ऐसे हमलों में उन इस्लामिक संगठनों की भूमिका होती है, जो यह मानते हैं कि बतौर इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान एक विफल मुल्क है। इसलिए अपना प्रभाव बढ़ाने और अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए वे संगठन पाकिस्तानी प्रतिष्ठानों पर हमले करते हैं।

अफगानिस्तान एक ऐसा कमजोर मुल्क रहा है, जिसकी स्थिरता के लिए तमाम बाहरी ताकतें वहां आती रही हैं। पहले वहां अंग्रेज आए, फिर रूस, तब अल-कायदा और अब अमेरिका। हालांकि अमेरिका वहां से निकलने की जद्दोजहद कर रहा है, इसलिए बतौर साझीदार पाकिस्तान की नजर अब इस मुल्क पर टिक गई है। बांग्लादेश को गंवाने के बाद पाकिस्तान पश्चिम एशिया में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अफगानिस्तान में लगातार अपनी मौजूदगी बढ़ाने में जुटा रहा है। पैसे के  साथ ही सेना व खुफिया एजेंसियों का भी वह वहां बखूबी इस्तेमाल कर रहा है। मगर उसकी यही रणनीति अब उसके गले की हड्डी बन गई है। अल-कायदा, तालिबान व इस्लामिक स्टेट जैसी ताकतों से उसे लगातार चुनौतियां मिल रही हैं। पाकिस्तान की मंशा अफगानिस्तान में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की है, कुछ ऐसी ही सोच वहां की इस्लामिक ताकतों की भी है, जो ये चाहती हैं कि उनकी सहमति के बाद ही अफगास्तिान में कोई दूसरा देश दाखिल हो। यानी वहां वैचारिक टकराव भी है। दो विचार आमने-सामने हैं, जिनकी वजह से अफगानिस्तान अस्थिर होता जा रहा है।

ऐसी स्थिति में भारत की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। दक्षेस में अफगानिस्तान को शामिल किए जाने की पीछे हमारी यही सोच थी कि दक्षिण एशियाई देशों में स्थिरता और शांति बनी रहे। मगर सवाल यह है कि चूंकि अभी हम कई आंतरिक चुनौतियों से जूझ रहे हैं, तो क्या अफगानिस्तान को लेकर हम संजीदा होंगे? सवाल यह भी है कि अपने दायरे में एक सुरक्षित, समृद्ध और स्थिर देश के रूप में भारत आगे बढ़ना चाहेगा या सीमा के बाहर भी वह अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने को उत्सुक है? अगर वह दूसरी स्थिति को चुनता है, तो कई तरीकों से उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि भारतीय प्रतिष्ठानों व नागरिकों पर कोई आंच न आएगी, अफगान सुरक्षा बलों के साथ तालमेल करके वहां सुरक्षा व्यवस्था मजबूत की जाएगी, वहां पर चल रही आर्थिक परियोजनाओं पर कोई खतरा पैदा नहीं होगा, और जहां-जहां भारतीयों की आबादी ज्यादा है, वहां-वहां सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम होंगे।

सवाल यह भी है कि आखिर अफगानिस्तान अपनी चुनौतियों पर काबू क्यों नहीं पा सका है? असल में, वहां अभी तक संगठित सरकार नहीं बन पाई है। दो विरोधी समूहों के नेताओं को आपस में मिलाकर अमेरिका ने गठबंधन सरकार बनाने में सहायता दी तो जरूर, मगर आज तक अशरफ गनी और अब्दुल्ला अब्दुल्ला के दिल नहीं मिल सके हैं। वहां एक धड़ा पुराने राष्ट्रपति हामिद करजई के समर्थकों का भी है। यानी अब भी वहां का राजनीतिक तंत्र कोई सभ्य समाज जैसा नहीं, बल्कि कबिलाई है, जिससे सभी कबीलों के अपने-अपने हित जुड़े हुए हैं। इस राजनीतिक व आंतरिक चुनौती के साथ ही वहां बाहरी चुनौतियां भी हैं। पूंजी के लिए उसकी निर्भरता आज भी दूसरे मुल्कों पर है। मगर इन बाहरी स्रोतों की सीमित या नगण्य उपस्थिति मुल्क में है। अमेरिका का ही उदाहरण लें। वह अफगानिस्तान छोड़़ना चाहता है। मगर दिक्कत यह है कि वह हारे हुए सिपाही की तरह वहां से नहीं जाना चाहता। उसकी मंशा है कि उसके बदले कोई दूसरा मुल्क अफगानिस्तान की स्थिरता के लिए काम करे। उसकी यह सोच सही है, पर साझीदार के रूप में पाकिस्तान को चुनने का उसका फैसला गलत है। भला जो देश खुद अस्थिर हो, वह किसी दूसरे देश में स्थिरता कैसे पैदा कर सकता है? होना तो यह चाहिए था कि शंघाई कॉरपोरेशन या इकोनॉमिक कॉरपोरेशन ऑर्गेनाइजेशन जैसे संगठनों के बहाने वहां दूसरी क्षेत्रीय ताकतों की मौजूदगी बढ़ाने के प्रयास होते। क्षेत्रीय ताकतों के ज्यादा होने का मतलब है, स्थिरता की ओर अफगानिस्तान के बढ़ने के ज्यादा अवसरों का पैदा होना। लिहाजा वहां एक ऐसे राष्ट्रीय नेता की सख्त जरूरत है, जो संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठकर देश की सोचे, और यह सुनिश्चित करे कि आम लोगों को स्थिरता, आर्थिक लाभ व सुरक्षा मिलेगी।
स्थिर अफगानिस्तान हमारे लिए भी बहुत फायदेमंद है। हमें न सिर्फ ऊर्जा के वैकल्कि स्रोत वहां से मिल सकते हैं, बल्कि परिवहन कॉरिडोर की सुविधा भी मिल सकती है। इससे पश्चिम एशियाई देशों तक हमारी पहुंच बढ़ेगी। इससे चीन की मंशा को भी चोट पहुंचेगी, जो पाकिस्तान के साथ मिलकर हमें घेरने की कोशिश कर रहा है। मौजूदा सरकार के लिए यह एक बेहतर समय है। अगर वह अफगानिस्तान को लेकर संजीदगी दिखाती है, तो हमारे संबंध तमाम पड़ोसी देशों से और बेहतर होंगे। इतना ही नहीं, अगर तापी परियोजना को जल्दी पूरा किया जाता है, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमतों का ज्यादा फायदा भी हम उठा सकेंगे।

फिलहाल अफगानिस्तान किसी बड़ी परीक्षा से कम नहीं। और हमारी स्थिति ऐसी भी नहीं कि अफगानिस्तान को मंझधार में छोड़कर हम निकल जाएं। हमारे कई हित उससे जुड़े हुए हैं। अगर अफगानिस्तान स्थिर होता है, तो हम भी समृद्ध बनेंगे। अफगानिस्तान में हमने दो अरब डॉलर का निवेश कर रखा है। हम अमेरिका की तरह समृद्धशाली देश नहीं, जो बड़ी पूंजी लगाकर अथवा डूबोकर उसे छोड़ दे। हमारे सामने कोई विकल्प नहीं है। हमें अफगानिस्तान की स्थिरता पर काम करना ही होगा। वैसे भी पड़ोसी देशों में स्थिरता और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों का भारत हमेशा से हिमायती रहा है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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