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दुश्मनी के खेल की देह-भाषा

एक पुरानी कहावत है कि विदेश नीति का खेल घरेलू दर्शकों को ध्यान में रखकर खेला जाता है। इस्लामाबाद में अगस्त की चार-पांच तारीख को भारत और पाकिस्तान के गृह मंत्रियों के बीच जो कुछ  घट रहा था, उसे...

दुश्मनी के खेल की देह-भाषा
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 16 Aug 2016 09:37 PM
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एक पुरानी कहावत है कि विदेश नीति का खेल घरेलू दर्शकों को ध्यान में रखकर खेला जाता है। इस्लामाबाद में अगस्त की चार-पांच तारीख को भारत और पाकिस्तान के गृह मंत्रियों के बीच जो कुछ  घट रहा था, उसे भी वहां से दूर अपने टेलीविजन सेटों पर नजरें गड़ाए भारतीय और पाकिस्तानी दर्शक देख रहे थे।

जरा सोचिए कि सामान्य परिस्थितियों में क्या राजनाथ सिंह और चौधरी निसार अहमद एक-दूसरे के सामने पड़ने पर मुस्कराना तो दूर, हाथ भी इस ढंग से मिलाएंगे कि कहीं दूसरा छू न जाए? वह भी तब, जब प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सारी परंपराओं और विरोध को छोड़कर नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में नई दिल्ली आ चुके हों और मोदी बिना किसी निर्धारित कार्यक्रम के नवाज की नतिनी की शादी में लाहौर जा चुके हों। दोनों देशों में उनके विरोधी यह आरोप लगाते रहे हैं कि उन्होंने देश का हित दांव पर लगाकर दूसरे पक्ष से दोस्ती करने का प्रयास किया है, पर उन्होंने मेल-मुलाकातों का सिलसिला पूरी तरह से खत्म नहीं किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि सार्क सम्मेलन के दौरान दोनों गृह मंत्री पूरी कोशिश करते रहे कि उनके हाव-भाव से भूलकर भी ऐसा आभास न हो कि वे दोस्ती के हामी हैं। आमतौर पर दुनिया भर में ऐसा नहीं होता।

राजनय के क्षेत्र में तो आस्तीन में खंजर छिपाए लोग भी मुस्करा के मिलते हैं।
दरअसल, दोनों प्रधानमंत्री अपनी खुद की बनाई छवि में बुरी तरह उलझकर रह गए हैं। मोदी चुनाव प्रचार के पूरे दौर में पाकिस्तान विरोधी शब्दावली इस्तेमाल करते रहे। उनके भाषणों में बार-बार इस्तेमाल होने वाला ‘मियां मुशर्रफ’ सिर्फ जुमलेबाजी नहीं थी, बल्कि यह उस मानसिक बनावट का द्योतक था, जिससे संघ परिवार वर्षों से राजनीति कर रहा था। इसके विपरीत, कुछ भी बोलना दरअसल श्रोताओं की पारंपरिक समझ को गड़बड़ाना था। इसलिए मोदी ने जब पाकिस्तान से संबंध सुधारने की कोशिश की, तो उनके बोल समर्थकों के पल्ले नहीं पड़े। मुख्य विरोधी पक्ष (कांग्रेस) भी कश्मीर और पाकिस्तान को लेकर वही रणनीति अपनाता है, जो पहले विपक्ष में बैठने वाली भाजपा अपनाती थी। दोस्ती की कोई भी पहल उसे सरकार की कमजोरी लगती है। यह रुख मोदी सरकार को अब और बैकफुट पर ला देता है।

इसी तरह का परिदृश्य सीमा पार पाकिस्तान में भी है। यह एक खुला रहस्य है कि नवाज शरीफ मूलत: फौज की पैदावार हैं और शुरुआती वर्षों में वह उसे सुहाने वाली  भारत विरोधी भाषा बोलते रहे हैं। सैनिक और असैनिक संबंधों के नाजुक संतुलन, देश की बिगड़ती अर्थव्यवस्था ने मूलत: कारोबारी नवाज को अपना स्वर बदलने पर मजबूर जरूर किया, लेकिन वहां पर भी यह परिवर्तन उस श्रोता के गले नहीं उतर रहा, जो उनसे एक खास शब्दावली की अपेक्षा करता है। खासतौर से फौज तो इसे बिल्कुल पचा नहीं पाएगी।
हाल ही में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चुनाव हुए।

सबको पता था कि चली आ रही परंपरा के अनुसार, केंद्रीय सत्ता पर काबिज मुस्लिम लीग (नवाज) ही इस बार चुनाव जीतेगी और यही हुआ भी। 41 में से 31 सीटें उसे मिलीं, पर चुनाव में भाग सभी राष्ट्रीय दलों ने लिया और प्रचार में पर्याप्त गहमा-गहमी भी रही। चुनाव प्रचार के दौरान पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता बिलावल भुट्टो का नारा था- जो मोदी का यार है, गद्दार है गद्दार है।  यह नवाज के धर्मसंकट को बखूबी बयान करता है। नवाज भी यहां अपने ही चक्रव्यूह में फंसे। लगातार भारत विरोधी भंगिमा अपनाने वाले नवाज के लिए अपने घरेलू श्रोताओं के गले के नीचे शांति की भाषा उतारने में दिक्कत आ रही है। अपने बनाए चक्रव्यूह में फंसने का ही परिणाम है कि आजादी की 69वीं वर्षगांठ को नवाज ने कश्मीर में चल रही तथाकथित आजादी की लड़ाई को समर्पित किया और दूसरे ही दिन लाल किले से पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने बलूचिस्तान का नाम लिया।

सार्क सम्मेलन के दौरान इस्लामाबाद में जो कुछ हुआ, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बांग्लादेश ने हमारे मुकाबले कहीं ज्यादा साफगोई से काम लिया है। पाकिस्तान से रिश्तों की खटास को स्वीकार करते हुए उसने अपने विदेश मंत्री को सम्मेलन में न भेजकर सचिव स्तर के अधिकारी से काम चला लिया। भारत की स्थिति इस अर्थ में, कुछ अधिक नाजुक है। एक बड़ी औद्योगिक और सामरिक शक्ति के रूप में उभर रहे देश के रूप में वह कतई नहीं चाहेगा कि सार्क के टूटने का ठीकरा उसके सिर पर टूटे। इससे उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि पर आघात पहुंचेगा। फिर इसी साल के अंत में इस्लामाबाद में सार्क के राष्ट्राध्यक्षों का सम्मेलन होने वाला है और उसमें मोदी को भी जाना है। नवाज के पारिवारिक कार्यक्रम में शिरकत करने वाले मोदी के लिए उसमे भाग न लेना बहुत असुविधाजनक होता।

गृह मंत्री राजनार्थ सिंह की भागीदारी प्रधानमंत्री मोदी की अगली पाकिस्तान यात्रा की पूर्वपीठिका है, पर इसमें सबसे बड़ी दिक्कत दोनों प्रधानमंत्रियों के घरेलू उपभोक्ता हैं। शत्रुता के खाद-पानी पर पले-बढ़े दर्शक टीवी के परदे पर वही तनाव देखना चाहते हैं, जो राजनाथ सिंह और चौधरी निसार अहमद की देह-भाषा से झलक रहा था। लेकिन क्या यह हो सकता है कि इस बार नवाज शरीफ की दावत छोड़कर मोदी वापस चले आएं और लोकसभा में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच घोषित करें कि वह इस्लामाबाद भोजन करने नहीं गए थे?

इस पूरी भूलभुलैया में मोदी के जोखिम ज्यादा हैं। उनके विरोधी भी मानते हैं कि वर्षों बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री को विदेश में इतना महत्व मिल रहा है। वर्षों बाद इतनी आक्रामक विदेश नीति भारत ने अपनाई है और ताबड़तोड़ विदेशी दौरे करने वाले किसी भारतीय प्रधानमंत्री को गौर से सुना जा रहा है। इसके पीछे पिछले कुछ वर्षों में एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरे देश की कद-काठी तो है ही, मोदी द्वारा विदेश नीति को दिया जाने वाला महत्व भी है। इस पूरे घटनाक्रम में मोदी की यह महत्वाकांक्षा भी झलक जाती है कि उन्हें एक विश्व नेता का दर्जा मिले। पाकिस्तान से संबंधों में बिगाड़ इस पर पानी फेर सकता है। याद रखना होगा कि युद्ध की नहीं, बल्कि शांति की बात करने वाले को ही विश्व जनमत स्वीकृति देता है।

दोनों प्रधानमंत्रियों के लिए जरूरी है कि वे अपने घरेलू समर्थकों को शांति की भाषा सुनने के लिए प्रशिक्षित करें। यह कठिन कार्य है, पर इस चुनौती को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा। घरेलू चुनौतियों, खास तौर से एक दुराग्रही सेना की महत्वाकांक्षाओं से घिरे नवाज के लिए यह ज्यादा मुश्किल है। मोदी इस चुनौती को स्वीकार करने के लिए बेहतर स्थिति में हैं- हाल में ही गो-रक्षकों को ललकार कर उन्होंने अपने पारंपरिक अराजक समर्थकों से छुटकारा पाने का दुस्साहसिक प्रयास तो किया ही है। शांति की वकालत ऐसी ही एक कोशिश हो सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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