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हिंदी के लेखक की रेटिंग

हिंदी में या तो प्रासंगिकता ढूंढ़ी जाती है, या समकालीनता, या सामयिकता! हिंदी की थकान का, उसकी बोरियत का यही कारण है। वह या तो प्रासंगिकता का रोना रोती है, या समकालीनता का पुराना-धुराना कालीन बिछाती...

हिंदी के लेखक की रेटिंग
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 26 Dec 2015 09:02 PM
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हिंदी में या तो प्रासंगिकता ढूंढ़ी जाती है, या समकालीनता, या सामयिकता! हिंदी की थकान का, उसकी बोरियत का यही कारण है। वह या तो प्रासंगिकता का रोना रोती है, या समकालीनता का पुराना-धुराना कालीन बिछाती रहती है।

पिछले 30 बरस की गोष्ठियों, सेमिनारों के टाॠपिक उठा लीजिए- कहीं कोई प्रेमचंद की प्रासंगिकता के बहाने खुद की अप्रासंगिकता को ही प्रासंगिक बनाए जा रहा है। कोई मुक्तिबोध की प्रासंगिकता को बताता हुआ अपनी प्रासंगिकता बताने में लगा है। कोई कबीर की समकालीनता, या निराला की प्रासंगिकता ढूंढ़ता हुआ अपने कालीन को रफू करता रहता है। अंग्रेजी का 'रलेवेंट' हिंदी में 'प्रासंगिक' बनाकर ठेला गया है। अंग्रेजी हमें 'रलेवेंट' दे भूल गई, हिंदी वाला अभी तक 'प्रसंग' खोजता रहता है।

जो भाषा प्रासंगिकता की जगह एक ठो नया शब्द तक न खोज सकी हो, वह स्वयं कब तक 'प्रासंगिक' रहेगी? याद रहे कि 'प्रसंग' का सगा भाई 'संदर्भ' है- बचपन से ही हिंदी के विद्यार्थी को 'प्रसंग' और 'संदर्भ' खूब रटाए जाते हैं, लेकिन पीएचडी तक किसी को क्लेरिटी नहीं आ पाती कि 'प्रसंग' क्या बला है और 'संदर्भ' क्या चीज है?

इससे पहले कि हिंदी अपनी प्रासंगिकता खोजते-खोजते अपने आपको 'खो' देने लायक बन जाए, मैं एक आइडिया दे रहा हूं, ताकि वह प्रसंगबाजी से ऊपर उठे और कुछ 'बक्से के बाहर' यानी 'आउट आॠफ बाॠक्स' सोचना शुरू करे।

मेरा मानना है कि अगर हिंदी लेखक की 'रेटिंग' तय होने लगे, तो उसकी आधी से अधिक समस्याएं हल हो जाएंगी। प्रासंगिकता का पल्ला छूट जाएगा और लेेखक का रेट तय हो जाएगा। एक फायदा यह होगा कि हम भी अंग्रेजी की तरह दुनिया को बता सकेंगे कि हिंदी का इस महीने का टाॠप रेटिंग का लेखक यह है। इस साल का नंबर वन लेखक वह है। हम चाहें, तो 'सप्ताह के लेखक' की रेटिंग भी तय कर सकते हैं। हर सप्ताह एक लेखक का रेट ऊपर चढ़ेगा और उतरेगा। लेखक 'सेनसेक्स' होगा। वह सुबह-दोपहर-शाम चढ़ा-उतरा करेगा।

दूसरा फायदा यह होगा कि हिंदी को बहुत से निकम्मे विशेषणों से निजात मिल जाएगी। जैसे 'ये महान हैं', 'वे मूर्धन्य हैं' 'ये ऐतिहासिक हैं', 'ये वरिष्ठ हैं' 'वे जाने-माने हैं' 'येे प्रख्यात है' और 'वे सुप्रसिद्ध हैं'। ये ऐसे शब्द हैं, जिनसे सुनने वाले को लगता है कि वह सचमुच 'महान' है। 'जाना' तो है ही, 'माना' भी है और 'ख्यात' से आगे 'प्रख्यात' हुआ पड़ा है, व 'सिद्ध' ही नहीं, प्रसिद्ध तो है ही, 'सुप्रसिद्ध' भी है।

ऐसे खाली-पीली विशेषणों के तूमार बांधने की आदत के कारण हिंदी का लेखक हमेशा 'ओवर रेटेड' नजर आता है। जैसे वे अद्भुत हैं, अन्यतम हैं, युगांतकारी हैं, अनिवार्य हैं, उनका योगदान ऐतिहासिक है। यह सब मन के मोदक हैं। हिंदी वाले मनमोदक से जीते हैं, आंकड़ों से नहीं। रेटिंग होगी, तो आकंड़े होंगे।

कौन-सा लेखक? कौन-सी किताब? कितनी बिकी? कितनी पढ़ी गई? कितनी उद्धृत हुई? इन सबके आकंड़े हों और लेखक की रेटिंग बने, तो क्या कहने! हिंदी वाला एकदम अंतरराष्ट्रीय हो जाएगा।

यह फिल्मी समीक्षाओं से सीखा जा सकता है। वहां रेटिंग होती है। किसी को पांच में से चार सितारे दिए जाते हैं, किसी को तीन, किसी को दो, किसी को एक, आधा भी दिया जाता है।

रेटिंग आएगी, तो सारी महानता-वहानता झड़ जाएगी। जो लिखेगा, जो बिकेगा, सो दिखेगा। फालतू का क्या काम?

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