यही तो रास्ते हैं देश का नेता बनने के
वह बचपन के बाद भी कल्पना की कोठरी में जाता है। वह गांव के स्कूल में पढ़ते-पढ़ते पहले पटवारी से प्रभावित हुआ। क्या रुतबा है इसका? आसपास इंसान मक्खी-मच्छर की तरह मंडरा रहे हैं। उसने पटवारी बनने की ठानी।...
वह बचपन के बाद भी कल्पना की कोठरी में जाता है। वह गांव के स्कूल में पढ़ते-पढ़ते पहले पटवारी से प्रभावित हुआ। क्या रुतबा है इसका? आसपास इंसान मक्खी-मच्छर की तरह मंडरा रहे हैं। उसने पटवारी बनने की ठानी। फिर उसे ग्राम-प्रधान का प्रभाव नजर आया। कच्चा घर देखते-देखते पक्का ही नहीं, बड़ा भी हो गया है। जब जनता के छोटे सेवक के ये ठाठ हैं, तो बड़ों का क्या होगा? उसे लगा, सरकारी नौकरी से प्रधानी बेहतर विकल्प है। उसने अफसरों की अंग्रेजी का रौब देखा है। शहर में पढ़कर वह भी गिटपिट करेगा। पढ़ाई में जमीन भी बेचनी पड़ी, तो बेच देगा। कौन-सी उसे खेती करनी है?
लीडरी के सपने संजोए वह विश्वविद्यालय आ धमका है। उसे आश्चर्य हुआ। यह यूनिवर्सिटी तो नेतागीरी की नर्सरी है। छात्र पढ़ने कम, नेता बनने ज्यादा आते हैं। कड़ी प्रतियोगिता है। उनके अनुकरण में उसने भी दाढ़ी रख ली है। प्रगतिशील वैचारिक प्रतिबद्धता की यह इकलौती पहचान है। व्यवस्था का विरोध उसके लिए उतना ही स्वाभाविक है, जितना सुबह सूरज का उगना। कश्मीर से कन्याकुमारी तक किसी हादसे पर वह सरकार की ईंट से ईंट बजाने को आतुर है। उसकी आवाज कान के परदे फाड़ने को पर्याप्त है। उसे यह विश्वास है। छात्रसंघ के वर्चस्व से वह सुर्खियों में ही नहीं, राष्ट्रीय फलक पर छाया है। अचानक उसे एहसास होता है कि केंद्रीय नेतृत्व बधाई देकर वैसे ही खामोश है, जैसे अखबार उसकी चुनावी जीत की खबर छापकर। आम आदमी मरकर भी खबर नहीं बनता है, पर वह खासतौर से सुर्खियों के लिए ही जिंदा है।
दल के दिग्गजों का ध्यान खींचना लीडरी के मिशन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। कैंपस के पार उसका नाम कैसे जाए? रोजमर्रा की नारेबाजी से हटकर कुछ करना पड़ेगा। यूं न वह देश का दुश्मन है, न आतंकियों का समर्थक। मगर एक के विरुद्ध और दूसरे के पक्ष में नारे लगाने में क्या जाता है? गिरफ्तारी से वह खुश है। राष्ट्रीय नेता उसके साथ हैं। कौन जाने, यह उसे नेता बनाने आए हैं या अपनी नेतागीरी चमकाने? कौन कहे, कल उसे पहचानने से भी इनकार करें?