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इसको भी पंक्ति को दे दो

सारा कसूर अज्ञेय जी का प्रतीत होता है। न  वह इस कविता को लिखते, न पचास दिन लाइनें लगतीं, न संसद में इतनी हाय-हाय होती, न मीडिया दिखा-दिखाकर हलकान होता, न सरकार को बार-बार आदेश देने पड़ते, न मैं...

इसको भी पंक्ति को दे दो
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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सारा कसूर अज्ञेय जी का प्रतीत होता है। न  वह इस कविता को लिखते, न पचास दिन लाइनें लगतीं, न संसद में इतनी हाय-हाय होती, न मीडिया दिखा-दिखाकर हलकान होता, न सरकार को बार-बार आदेश देने पड़ते, न मैं इसे लिखकर आपका टाइम खराब कर रहा होता। लेकिन कोई क्या कर सकता है? कवि पर किसका बस चलता है? कोई कहता है कि कविर्मनीषी परिभूस्वयंभू। कोई बताता है कि वह भविष्य द्रष्टा होता है। कोई उसे टॉप क्वालिटी की दूरबीन बताता है। कोई उसे ब्रह्मा बताता है, जो अपनी सृष्टि को जैसे रुचती है, वैसी बनाता है। कोई कहता है कि जहां न पहुचे रवि, तहां पहुंचे कवि।

इतनी तारीफ के बाद तो किसी का भी भेजा फिर सकता है, सो कवि का भेजा भी फिर जाता है। वह कुछ का कुछ ऐसा बक देता है, जो तब समझ में नहीं आता, पर जब समझ में आता है, तब जानलेवा हो जाता है। मुझे तो लगता है कि कवि साहित्य का ‘नास्त्रेदमस’ जैसा ज्योतिषी होता है। जिस तरह से नास्त्रेदमस ने फ्रेंच में भविष्यवाणियां की हैं और जिनके आधार पर कुछ लोग मानते हैं कि आज जो कुछ हो रहा है, उसे नास्त्रेदमस ने सैकड़ों साल पहले ही लिख दिया था।

उसी तरह, मैं कह सकता हूं कि अपने अज्ञेय जी किसी नास्त्रेदमस से कम नहीं, बल्कि उससे भी सवा हाथ आगे हैं। नास्त्रेदमस को तो भान भी नहीं हुआ कि एक दिन ऐसा आएगा कि पूरा भारत लाइन में लग जाएगा। यह सिर्फ अज्ञेय जी ने ही बताया कि हे लेखक, तू कितना ही स्नेह भरा, गर्व भर मदमाता रहे, लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि जब तुझे अपने आप को पंक्ति को देना ही पडे़गा। अज्ञेय जी ने लिखा कि- यह दीप अकेला स्नेह भरा/ है गर्वभरा मदमाता पर/ इसको भी पंक्ति को दे दो। देखी शैतानी, हमें कह गए कि लाइन में लग जा और खुद सटक लिए।

हमें समझा गए कि हे लेखक, यह जो इकलखुरा दीपक है, जिसकी टंकी स्नेह से फुल है, जो गर्वीला और मस्त भी है, इसकी खैरियत चाहता है, तो इसे भी पंक्ति को दे दे, यानी इसे भी ‘क्यू’ में लगा दे। पिछले पचास दिनों में इस कविता का अर्थ हर दिन किस्तों में खुला है। जब-जब मैंने लाइनें लगी देखीं और टीवी वालों को लाइन में लगे दीपकों से सवाल करते देखा कि कैसा लग रहा है? और लोग खुश हो-होकर कहते कि बड़े मजे हैं, क्योंकि हम पंक्ति को दे दिए गए हैं, तब-तब मुझ मूढ़ की आखें खुलीं।

उस दिन, जब मैं सुबह सात बजे से दोपहर तीन बजे तक अपने को पंक्ति को देकर आया, तब मुझे इस कविता के असली ध्वन्यार्थ मालूम पडे़ कि अज्ञेय जी ने दीपक जी को ‘गर्वभरा मदमाता’ क्यों कहा था? उनको लाइनवादी मोक्षमार्ग मालूम था। वह जानते थे जब कोई लाइन में लग जाता है, तो उसका सारा गर्व और मद झड़ जाता है और ‘मेर-तेर’ के माया-मोह से मुक्त हो जाता है। उस दिन मेरा सारा अकड़ू दीपकत्व और स्नेहत्व  निकल गया। मैं खिसियाता-पिनपिनाता घर लौटा।

मैं समझता-समझाता रहा कि कविता का दीपक किसी जलाने वाले मित्र से कह रहा है कि मुझे अकेले न जलाना, जब जलाना तो दूसरे जलने वालों की लाइन में जरूर लगा देना। मुझे क्या पता था कि इस कविता का असली अर्थ सन सोलह के अंतिम दिनों में खुलेगा और ऐसा खुलेगा कि बाकी के सब ‘अर्थ’ व्यर्थ हो जाएंगे। जब से इन पक्तियों के नए अर्थ खुले हैं, मैं अज्ञेय को अपना ईष्टदेव मानने लगा हूं। मैं उनके नाम पर एक मंदिर बनवाना चाहता हूं, जिसका नाम होगा- इसको भी पंक्ति को दे दो।
 

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