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गालिब को याद करते हुए

गालिब को गुजरे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं। अब भी वह दिल पर यों असर करते हैं, जैसे कल के प्रतिभाशाली शायर। अब्दुर्रहमान बिजनौरी ने, जो खुद बड़े अदीब और नक्काद यानी आलोचक थे, गालिब के बारे में लिखा है...

गालिब को याद करते हुए
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 24 Feb 2016 09:17 PM
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गालिब को गुजरे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं। अब भी वह दिल पर यों असर करते हैं, जैसे कल के प्रतिभाशाली शायर। अब्दुर्रहमान बिजनौरी ने, जो खुद बड़े अदीब और नक्काद यानी आलोचक थे, गालिब के बारे में लिखा है कि हिन्दुस्तान में दो ही इल्हामी किताबें हैं- एक वेद और दूसरी दीवाने-गालिब।  मेरे ख्याल से वेद अगर आसमान से उतर जमीन पर आया है, तो गालिब का दीवान जमीन से आसमान तक पहुंचा है।

और महान ग्रंथ वही होते हैं, जो अदना कवि या शायर के लिखे हों और दुनिया जीत लें। महान साहित्यकार अपने वक्त में तो चमकता ही है, बाद में भी उसकी रोशनी कम नहीं होती। इस नजर से गालिब 20वीं सदी के मॉडर्न अप-टु-डेट शायर हैं। इसके सुबूत में मैं गालिब के सैकड़ों शेर दे सकता हूं, पर मैं ऐसा नहीं करूंगा। इसके बदले मैं किसी मॉडर्न शायर से पूछना चाहूंगा कि वह गालिब का कोई ऐसा शेर सुनाए, जो भाव की दृष्टि से आज पुराना लगे।

मैंने गालिब को हिंदी में पढ़ा है और जो उन्होंने फारसी में लिखा, मैं फारसी जानने की मजबूरी से समझ नहीं सका। पर जो उन्होंने उर्दू में कहा है, वह पढ़कर बहुत झूमा। अगर हिंदी वालों में चोरी-डकैती के जरा भी गुण हैं, तो उन्हें चाहिए कि गालिब को उर्दू से चुरा लाएं। और अगर चुराया न जा सके, तो उर्दू जुबान चुरा लाएं। फिर उर्दू तो एक तरह से हिंदी ही है। मैं जब उर्दू और हिंदी को एक कहता हूं, तो जानता हूं कि यह जुमला किस तरह करंट मारता है बाज लोगों को।
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