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आधुनिक चिकित्सा पर गांधी का नुस्खा

मेरे परिवार में आधुनिक या पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा पाए कई डाक्टर हैं। 1980 के दशक तक ये सब वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ थे। वक्त के साथ उनका रवैया बदला है। वे अब हर्बल चिकित्सा और...

आधुनिक चिकित्सा पर गांधी का नुस्खा
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 16 May 2016 09:52 PM
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मेरे परिवार में आधुनिक या पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा पाए कई डाक्टर हैं। 1980 के दशक तक ये सब वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के खिलाफ थे। वक्त के साथ उनका रवैया बदला है। वे अब हर्बल चिकित्सा और कभी-कभी एक्युपंचर के फायदे भी समझते हैं। योग के प्रति भी उनमें उत्साह दिखता है। सिर्फ होम्योपैथी के वे अब भी विरोधी हैं। दिलचस्प यह है कि महात्मा गांधी का रवैया इसके उलटी दिशा में बदलता चला गया। जब वह युवा थे, तब प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति आकर्षित हुए। बाद में उन्होंने कुछ योग भी सीखा। 30 की उम्र के बाद उन्होंने कई सारी जड़ी-बूटियां जुटा ली थीं, जिसका इस्तेमाल वह अपने अलावा मित्रों और शिष्यों पर करते थे।

आधुनिक चिकित्सा की ओर गांधी का रवैया ज्यादा सकारात्मक तब हुआ, जब वह 50 के होने को हुए। उन्हें कठिन बवासीर हो गई। इसके लिए उन्होंने जनवरी, 1919 में डाॠक्टर दलाल से मुंबई में आॠपरेशन करवाया। आॠपरेशन इतना कामयाब रहा कि फिर उन्हें यह तकलीफ नहीं हुई। उसके बाद उनके जिन भी परिचितों को बवासीर होती थी, उन्हें वह डाॠक्टर दलाल से मिलने को कहते थे। फरवरी, 1921 में गांधीजी ने दिल्ली में एक मेडिकल काॠलेज का उद्घाटन किया, जिसके प्रणेता महान यूनानी चिकित्सक हकीम अजमल खां थे। इस मौके पर उन्होंने कहा, 'मैं आधुनिक वैज्ञानिकों की खोज की जो भावना है, उसके प्रति अपना विनम्र सम्मान प्रकट करना चाहता हूं। मेरा झगड़ा उस भावना से नहीं है।

मेरी शिकायत उस दिशा से है, जिस तरफ उस भावना को मोड़ दिया गया है। अब इसका इस्तेमाल भौतिक लाभ के लिए नियम और तरीके खोजने में होता है, लेकिन मैं सत्य की खोज में लगे वैज्ञानिकों की लगन, मेहनत और त्याग की प्रशंसा करता हूं।' गांधीजी ने आधुनिक विज्ञान की खोज की प्रवृत्ति को परंपरागत चिकित्सकों के आत्मसंतुष्ट रवैये के मुकाबले रखकर देखा। उन्होंने कहा, 'हमारे हकीम और वैद्य शोध की ओर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते। वे बिना कोई सवाल पूछे पुराने नुस्खों को आजमाते रहते हैं। परंपरागत चिकित्सा की स्थिति बहुत खराब है। वे आधुनिक शोध की जानकारी नहीं रखते, इसलिए उनका पेशा यश खो चुका है।' गांधीजी ने उम्मीद जताई कि हकीम अजमल खां का काॠलेज इस कमी को दूर करेगा और आयुर्वेद व यूनानी चिकित्सा प्रणालियों को फिर खोया सम्मान लौटाएगा। उन्होंने इस बात पर खुशी जताई कि उस संस्थान में एक पश्चिमी चिकित्सा विज्ञान का विभाग भी था।

जनवरी, 1924 में जब गांधीजी यरवदा जेल में थे, तब वह गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें मिलिट्री अस्पताल ले जाया गया, जहां मेडाक नामक एक अंग्रेज डाक्टर ने उनका अपेंडिससाइटिस का आपरेशन किया। आपरेशन के पहले की रात गांधीजी को इतनी तकलीफ थी कि उन्होंने सोचा कि उनका अंत अब निकट है और उन्होंने अपनी थोड़ी-बहुत जमा पूंजी आसपास के लोगों को बांट दी। पर उनका आपरेशन सफल रहा, और आधुनिक चिकित्सा में गांधीजी का विश्वास और बढ़ गया। इसके एक साल बाद गांधीजी मद्रास गए थे। वहां उन्हें एक आयुर्वेदिक दवाखाने में भाषण देना था। उन्होंने कहा, 'यह देखा गया है कि आयुर्वेद के चिकित्सक पुराने यश के भरोसे ही कामकाज चला रहे हैं। आयुर्वेद का निदान शास्त्र अब भी पुराने ढंग का है और उसकी पश्चिमी चिकित्सा के साथ तुलना नहीं हो सकती। पश्चिमी चिकित्सा तंत्र के बारे में और कुछ भी कहा जाए, एक बात उसके पक्ष में कहनी होगी कि उसमें विनम्रता व खोज की प्रवृत्ति है और उसमें ऐसे डाक्टर हुए हैं, जिन्होंने अपना सारा वक्त गुमनाम रहते हुए शोध में बिता दिया।'

गांधीजी चाहते थे कि यही भावना आयुर्वेद चिकित्सकों में भी हो। अगले महीने गांधीजी ने तलवलकर नाम के एक आयुर्वेदिक चिकित्सक को लिखा, 'आयुर्वेदिक दवाओं में मेरा विश्वास है, लेकिन उनके चिकित्सकों के निदान में नहीं है। इसलिए मैं आयुर्वेदिक इलाज करा रहे किसी मरीज के बारे में तब तक आश्वस्त नहीं होता, जब तक कि उसके निदान को कोई विश्वसनीय आधुनिक डाॠक्टर जांच नहीं लेता।' मार्च, 1925 में कोलकाता के अष्टांग आयुर्वेद विद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने कहा, 'एक वक्त मैं आयुर्वेदिक चिकित्सा का बड़ा हिमायती था और सारे मित्रों से इसकी सिफारिश करता था, लेकिन मैंने पाया कि हमारे आयुर्वेदिक व यूनानी चिकित्सकों में विनम्रता नहीं है। उनमें यह अहंकार है कि वे सब कुछ जानते हैं और ऐसी कोई बीमारी नहीं, जिसका वे इलाज नहीं कर सकते।' इस भाषण की खबर अखबारों में छपी।

एक पत्रकार ने गांधीजी से शिकायत की कि आयुर्वेद में विवेकवान लोग हैं, और गांधीजी ने सिर्फ उसके गड़बड़ पक्ष को देखा है। गांधीजी ने अपने पक्ष का बचाव करते हुए कहा, मैं किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा की गई किसी महत्वपूर्ण खोज के बारे में नहीं जानता, जबकि पश्चिमी डाक्टरों ने कितनी ही शानदार खोजें की हैं। गांधीजी ने कहा कि हमारे कविराज, वैद्य और हकीमों को वैसा ही वैज्ञानिक रवैया अपनाना चाहिए, जैसा पश्चिमी डाक्टर अपनाते हैं। उन्हें पश्चिमी डाक्टरों की विनम्रता की नकल करनी चाहिए।

गांधीजी यह भी मानते थे कि पश्चिमी विज्ञान से कई चीजें सीखनी चाहिए, पर कुछ चीजें नहीं भी सीखनी चाहिए। मसलन, वह शोध और इलाज के नाम पर जानवरों के साथ किए जाने वाले अत्याचार के खिलाफ थे। उनका मानना था कि आयुर्वेद में भी पशुओं के चीर-फाड़ की अनुमति है, लेकिन अत्याचार की अनुमति कहीं भी हो, तो वह गलत है। अप्रैल, 1933 में गांधीजी एक बार फिर जेल में थे। वहां से उन्होंने अपने एक अनुयायी को लिखा कि चिकित्सा के विभिन्न तंत्रों के विश्लेषण के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अपनी सीमाओं और उससे जुड़े अंधविश्वासों के बावजूद एलोपैथी इस वक्त दुनिया का सबसे ज्यादा व्यापक और लोकप्रिय चिकित्सा-तंत्र है। यह तंत्र बहुत समावेशी है।

यह होम्योपैथी, बायो-केमिस्ट्री और प्राकृतिक चिकित्सा को भी समा सकता है। अगर एलोपैथी अपने को धन के पीछे भागने से रोक ले, चीर-फाड़ जैसी कुछ प्रवृत्तियों को छोड़ दे और आम आदमियों के अनुभव से भी सीखे, तो यह सबके फायदे की और किफायती व्यवस्था बन सकती है। गांधीजी को आधुनिक विचारकों में सबसे ज्यादा याद किया जाता है, लेकिन बहुत सारे उद्धरण संदर्भ से काटकर इस्तेमाल किए जाते हैं। उनके आलोचक व प्रशंसक, दोनों ही ऐसे उद्धरणों का इस्तेमाल यह बताने के लिए करते हैं कि वे आधुनिक विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा, दोनों के खिलाफ थे, लेकिन सावधानी से पढ़ने पर उनके विचारों में लगातार बदलाव नजर आता है। आधुनिक चिकित्सा पर उनका नजरिया उनके दिमाग के खुलेपन को दर्शाता है। वह नए तथ्यों की रोशनी में अपने विचारों में बदलाव करने को तैयार थे। उनमें एक बहुलतावाद दिखता है, जैसे भारत में कई धर्मों और भाषाओं की जगह है, वैसे ही कई चिकित्सा प्रणालियों की भी जगह है। आजकल डाॠक्टर जो कह रहे हैं, वह गांधीजी सन 1921 में कह रहे थे कि तमाम चिकित्सा प्रणालियों का ऐसा मेल हो सकता है, जिसमें सभी की कमियां दूर की जा सकें। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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