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धन के बल पर चुनाव की बाजी

आज जब आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी विधानसभाओं के लिए वोटिंग रफ्तार पकड़ने लगी है। इन तीनों ही राज्यों में किसी भी एक राजनीतिक दल या गठबंधन के पक्ष में लहर नहीं दिख रही है।...

धन के बल पर चुनाव की बाजी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 May 2016 09:32 PM
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आज जब आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी विधानसभाओं के लिए वोटिंग रफ्तार पकड़ने लगी है। इन तीनों ही राज्यों में किसी भी एक राजनीतिक दल या गठबंधन के पक्ष में लहर नहीं दिख रही है। शराबबंदी, भ्रष्टाचार के आरोप और तमाम तरह के विवाद चुनावी अभियान में हवा में उछले और आखिरकार तीन दिन बाद नतीजे भी हमारे सामने होंगे। पर इस बार के चुनाव में एक तरह की उदासीनता दिखी। सरकारें भले बदल जाएं, पर शासन का तरीका नहीं बदलने वाला।

इन तीनों में सबसे बड़े राज्य तमिलनाडु में एक चीज साफ-साफ दिख रही है, और वह है पैसे की ताकत। पिछले दिनों चुनाव आयोग ने करीब 100 करोड़ रुपये जब्त करने की बात कही थी। जाहिर-सी बात है, ये रुपये वोटरों के बीच बांटे जाने थे। अन्नाद्रमुक और द्रमुक समेत तमाम प्रमुख द्रविड़ पार्टियां वोट के बदले नोट की कला बखूबी जानती हैं। और पैसे का यह हस्तांतरण कई तरह से होता है। उदाहरण के लिए, टेलीफोन रिचार्ज कूपन या पेट्रोल कूपन के रूप में भी हो सकता है। कुछ मामलों में तो बिल्कुल नकद भुगतान किया जाता है। सुबह आंख खोलते ही मतदाताओं को अपने अखबार के साथ रुपये लिपटे मिलते हैं या फिर दूध के पैकेट से चिपके हुए नोट मिलते हैं। कुछ लोगों के मुताबिक, अब ये तरीके पुराने पड़ गए हैं। राजनीतिक पार्टियां अब वोटिंग के दिन से महीनों पहले पैसे बांटने लगी हैं। लेकिन इसके लिए सिर्फ सियासी पार्टियों को दोष नहीं दिया जा सकता। भ्रष्ट मतदाता अब सीधे-सीधे पैसे मांगते हैं।

स्वतंत्र मत-सर्वेक्षकों का एक दल जब यह आकलन करने मतदाताओं के बीच पहुंचा कि हवा किस तरफ बह रही है, तो उनसे अजीब मांगें की गईं। इन सर्वेक्षकों को राजनीतिक पार्टियों का नुमाइंदा समझते हुए मतदाताओं ने उनसे यह विनती की कि वे अपने रजिस्टर में ज्यादा से ज्यादा संख्या में उनके लोगों के नाम दर्ज कर लें। इनमें उनके बेटे-बेटियों व अन्य रिश्तेदारों के नाम तो शामिल थे ही, कुछ तो बिल्कुल काल्पनिक नाम थे। कहा जाता है कि एक-एक वोट के लिए 250 से लेकर 25,000 रुपये तक बांटे जाते हैं।

नगद रिश्वत तो एक पहलू है, दूसरा पक्ष चुनावी वादों की शक्ल में हमें देखने को मिलता रहा है। इस चुनावी रिश्वत का दायरा हर दो महीने पर 100 यूनिट मुफ्त बिजली देने से लेकर मुफ्त में स्मार्टफोन बांटने तक फैला हुआ है। तमिलनाडु का साल 2015-16 का बजट 1,74,500 करोड़ रुपये का था, जिसमें से लगभग 60,000 करोड़ सब्सिडी पर खर्च किए गए थे और पूंजीगत व्यय के लिए सरकार के पास सिर्फ 24,000 करोड़ रुपये ही रह बचे थे। ऐसा नहीं है कि सरकार द्वारा शुरू की गई सभी योजनाएं बुरी हैं। मसलन, स्कूल ड्रेस, साइकिल, लड़कियों के लिए सैनिटरी नैपकिन से जुड़ी योजनाएं सराहनीय कही जाएंगी, क्योंकि इन्होंने न सिर्फ स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ाई, बल्कि बीच में पढ़ाई छोड़ देने की दर में भी इनके कारण कमी आई। लेकिन फ्री मिक्सर-ग्राइंडर जैसी चीजें भी बांटी गईं, जिनको कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता। साफ है, इस धन-बल ने राजनीतिक पार्टियों के लिए एक बराबर मैदान नहीं रहने दिया है। जो सत्ता में है, उसे बढ़त हासिल है। साल 2006 में सीधे व परोक्ष रूप से धन-बल का शुरुआती फायदा उठाने वाला दल द्रमुक आज बैकफुट पर है। दिलचस्प बात है कि उसका घोषणापत्र  इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की बात करता है।

यह सुखद बात है कि पड़ोसी राज्य केरल धन-बल की गिरफ्त में नहीं फंसा है। माकपा और कांगे्रस के नेतृत्व वाले एलडीएफ और यूडीएफ एक कोरी चुनावी जंग लड़ रहे हैं। यूडीएफ ने साल 2011 का विधानसभा चुनाव मामूली अंतर से जीता था और ट्रेंड्स के मुताबिक, अब सरकार बनाने की बारी एलडीएफ की होनी चाहिए। पर कई तरह के भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे मुख्यमंत्री ओमन चांडी यह उम्मीद पाले बैठे हैं कि शराबबंदी की नीति के कारण वह अपनी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब हो जाएंगे। एलडीएफ को कुछ नुकसान होता दिख रहा है, क्योंकि राज्य में अपना आधार बढ़ाती भाजपा एलडीएफ के हिंदू वोटों को अपनी ओर खींचती हुई लग रही है। हालांकि केरल में सीपीएम और आरएसएस के बीच हिंसक मुठभेड़ का पुराना इतिहास है, लेकिन वहां चुनावी कदाचार की कोई प्रवृत्ति नहीं मिलती।
केरल में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की कोई राजनीतिक संस्कृति नहीं है।

हालांकि, मिड-डे मील योजना को एक के बाद दूसरी सरकारों ने लगातार जारी रखा, लेकिन पड़ोसी तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियों की तरह केरल के दलों के चुनाव घोषणापत्रों में मुफ्त में सुविधाएं देने का कोई वादा नहीं मिलता। केरल का सबसे बड़ा संकट बेरोजगारी है। पर्यटन उद्योग की कमजोर स्थिति, तेल संकट की वजह से खाड़ी के देशों से आने वाली मुद्रा में सूखे की हालत व महंगाई ने अर्थव्यवस्था को नई मजबूती देने और सार्वजनिक निवेश की राह में कठिनाइयां पैदा की हैं। दुखद पहलू यह है कि दोनों गठबंधनों में से कोई भी पक्ष हालात से निपटने की कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखा रहा। बहरहाल, भाजपा ने आक्रामक रुख अपनाते हुए केरल के चुनाव को एक रोमांचक मोड़ दे दिया है। यह देखना सचमुच दिलचस्प होगा कि पार्टी वहां अपना खाता खोल पाती है या नहीं। जहां तक पुडुचेरी का सवाल है, तो वहां का मुद्दा स्पष्ट है। वहां मुख्यमंत्री एन आर रंगासामी दूसरी पारी के लिए प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन्हें कांग्रेस से और कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में अन्नाद्रमुक से कड़ी चुनौती मिल रही है।

पिछले कुछ दशकों में चुनाव आयोग ने कई चरणों में मतदान कराकर, भारी संख्या में सुरक्षा बलों की नियुक्ति करके और निर्वाचन कार्यों से जुड़े अफसरों के तबादले व नियुक्ति करके बाहुबलियों को दूर रखने व हिंसा को थामने में सफलता पाई है। लेकिन आयोग धन-बल को काबू में करने में अब तक नाकाम रहा है, जिससे विभिन्न पार्टियों के लिए चुनाव अब बराबरी के मुकाबले नहीं रह गए। खासकर छोटी पार्टियों के उम्मीदवारों के लिए। तमिलनाडु के एक वरिष्ठ माकपा नेता की शिकायत थी कि एक ऐसे माहौल में, जहां ‘पूरी आबादी भ्रष्ट’ हो चुकी हो, उसमें हम जैसी पार्टियों के लिए क्या उम्मीद रह जाती है? साल 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर चुनाव आयोग ने धन-बल के प्रसार को, खासकर मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की प्रवृत्ति को रोकने की कोशिश की थी। लेकिन लगभग तमाम पार्टियों के तीखे विरोध के कारण उसकी वह कोशिश सफल नहीं हो सकी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)    
 

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