फोटो गैलरी

Hindi Newsआलोचना की नई दुकान

आलोचना की नई दुकान

चलते-चलते ठिठक गया। देखा तो सामने बोर्ड लगा था- ‘पेड आलोचना’। काफी छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘पेड आलोचना की दुकान, यहां तसल्लीबख्श काम होता है। एक बार जरूर आजमाएं। ट्रायल...

आलोचना की नई दुकान
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 28 Jan 2017 10:32 PM
ऐप पर पढ़ें

चलते-चलते ठिठक गया। देखा तो सामने बोर्ड लगा था- ‘पेड आलोचना’। काफी छोटे अक्षरों में लिखा था- ‘पेड आलोचना की दुकान, यहां तसल्लीबख्श काम होता है। एक बार जरूर आजमाएं। ट्रायल फी।’ 

चौंकने का कारण था। एक तो साहित्य की नई दुकान ही खुल गई है। दूसरे, उसका बोर्ड तक लग गया है। तीसरे यह कि आलोचक खुलेआम कह रहा है कि पेमेंट करके मनचाही आलोचना कराइए। यह भी कह रहा है कि ट्राई करने के पैसे नहीं लिए जाते। लगा कि हिंदी साहित्य दो-तीन युग फलांग मारकर सीधे सुपर-प्रोफेशनल युग में आ गया है।

पहली बार भान हुआ कि इसीलिए तो इस धंधई आलोचक की देह धरी थी कि एक दिन ऐसा आए। लेकिन यह कौन आ गया है, जो कनॉट प्लेस में पूरी दुकान ही खोलकर बैठ गया है और जमकर मार्केटिंग भी कर रहा है? मेरा मन नहीं माना और अंदर घुस ही गया। अंदर तेज रोशनी थी, दस-बारह केबिन में युवक-युवतियां कंप्यूटरों पर बेआवाज उंगलियां मारे जा रहे थे। दुकान का मालिक किसी आलोचक की मुद्रा में बैठा था। उसकी उम्र हिंदी साहित्य की उम्र जितनी थी। दीवारों पर अब तक के हुए और न हुए आलोचकों के चित्र थे। यह दूसरा झटका था, जो मुझे वहां खड़े-खड़े लगा। महावीर प्रसाद द्विवेदी की मूंछें साफ थीं और वह जरूरत से ज्यादा मुस्कराते हुए दिख रहे थे। शुक्ल जी की मूंछें भी गायब थीं और बाकी के धोती वाले सूट-बूट में खुश-खुश नजर आते थे।

आलोचक और खुश? यह अपने आप में कंट्रास्टिंग सीन था। मैं उसकी ओर बढ़ा और उसके इशारे पर सामने की कुरसी पर बैठ गया। 
‘जानते हैं, जिस पर आप बैठ रहे हैं, वह कुरसी किसकी है?’ मैं कैसे बताता कि किसकी है, सो हैरत से देखता रहा। मेरी हैरानी देख वही बोला- ‘यह आचार्य मम्मट की है’।
‘तब तो लोग आसन मारकर लिखते थे?’ 
उसने ठहाका मारा और बोला- ‘यह मम्मट की ही है, इसी पर वह बैठा करते थे। वो मेज भी अगले महीने आ रही है, जिस पर वह लिखा करते थे। आपको यकीन नहीं?’
मैंने कहा- ‘लगता नहीं है।’ 
‘अगर मैं कहूं कि यह महावीर प्रसाद की है, तो आप क्या कर लेंगे?’
मैंने कहा- ‘कर तो कुछ न लूंगा।’
‘बताइए क्या सेवा कर सकता हूं?’ 
‘आपको ये क्या सूझी, आलोचना भी ‘पेड’ हो सकती है, ये क्या पंक्चर की दुकान है?’
‘डिमांड है। बड़े-बड़े आलोचक कर रहे हैं। मैंने लिखा, तो अनर्थ कर दिया? मैंने आलोचना को पहली बार जमीन पर खड़ा किया है।’
‘लेकिन आप तो आलोचना का बेच रहे हैं’।

‘कौन नहीं बेच रहा? सब बेचते हैं, लेकिन रेट नहीं बताते। कैश में नहीं तो काइंड में लेते हैं। पेमेंट सब लेते हैं। सिद्ध करूं क्या? कोई चेलों से फ्री सब्जी मंगवाता है, मालिश करवाता है, उनको नौकरी दिलाता है, साहित्यकार बनाता है। यह कांइड में पेमेंट है। कोई कवियों को पालता है, पीता-पिलाता है। तू मुझे चढ़ा, मैं तुझे चढ़ाऊं- का बाजार गरम करता है। मैंने बोर्ड लगा दिया, तो क्या गुनाह किया? बडे़ से बडे़ कवि-कथाकार लाइन लगाए हैं कि उनकी मनचाही आलोचना लिखवा दूं। गोपनीयता की शर्त के कारण नाम नहीं बता सकता...। आपको जॉइन करना हो तो बताना। हर ऑर्डर पर पचास  फीसदी आपका। जब चाहें, जॉइन कर सकते हैं।’ मैंने धन्यवाद दिया और उठ आया।  
सोच रहा हूं कि पड़ोस के मॉल में मैं भी एक दुकान खोल लूं।

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें