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गोद में कहानियां

एक दौर था, जब बच्चों के लिए कहानियां खत्म ही नहीं होती थीं। वे सुनते रहते थे दादी, नानी की गोद में बैठकर कहानियां और उनसे मिली सीखों को जज्ब करते रहते थे हां, हूं करते हुए। कहानियां आज भी हैं चैनलों...

गोद में कहानियां
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Mar 2009 01:00 PM
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एक दौर था, जब बच्चों के लिए कहानियां खत्म ही नहीं होती थीं। वे सुनते रहते थे दादी, नानी की गोद में बैठकर कहानियां और उनसे मिली सीखों को जज्ब करते रहते थे हां, हूं करते हुए। कहानियां आज भी हैं चैनलों पर, लेकिन वह बात नहीं। कहा जा सकता है कि क्या फर्क पड़ता है? कहानियां तो कहानियां हैं।

दरअसल, कहानियों से ज्यादा मतलब गोद का है। गोद रिश्तों की खुशबू देती है। जब दादी के बालों से उठते नारियल तेल की खुशबू के बीच रामायण-महाभारत के प्रसंग सुने जाते हैं, तो वे ज्यादा करीब लगते हैं। उनके आदर्श आत्मसात करने में ज्यादा आसानी होती है। एरिक एरिक्सन मशहूर मनोवैज्ञानिक रहे हैं। उन्होंने आइडेंटिटी क्राइसिस की अवधारणा दी। वह कहते हैं- कहानियां सिर्फ परंपराओं और संस्कृति की समझ ही नहीं देतीं, यह हमारा स्वभाव ज्यादा जागरूक और जिज्ञासु बनाती हैं। ये सुनने की कला देती हैं। वे आगे कहते हैं कि कहानियां सुनकर जब बच्चे नानी-दादी से सवाल पूछते है, तो उसके जवाब में उनके जीवन की सच्चाई भी मिली होती है, जो बच्चे के लिए ज्यादा उपयोगी अनुभव की नींव रखती है।

आज लोग समय का रोना रोते हैं। दादी-नानी पास न भी हों, तो किसी बड़े से कहानियां सुनी जानी चाहिए। यह हमारी समझ के लिए खाद-पानी सी है। यहां साहित्य की नोबेल पुरस्कार विजेता सिगडि अनसेट का एक प्रसंग जरूरी है। उन्हें जब नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई, तो पत्रकार उनके घर दौड़े। देर शाम का वक्त था। उन्होंने पत्रकारों से कहा अभी मैं आपसे बात नहीं कर सकती। मैं जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम कर रही हूं। वह अपने बच्चे को सुला रही थीं, कहानियां सुनाते हुए।
 

 

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