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ब्रिक्स को छोटे विवादों से बचाना होगा

ब्रिक्स के आठवें शिखर सम्मेलन का आगाज कुछ ही घंटों में होने जा रहा है। इस बार यह सम्मेलन भारत में हो रहा है, जिसमें पांचों सदस्य देश हिस्सा लेंगे। ब्रिक्स के गठन को दस वर्ष हो चुके हैं, और इन वर्षों...

ब्रिक्स को छोटे विवादों से बचाना होगा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 15 Oct 2016 12:37 AM
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ब्रिक्स के आठवें शिखर सम्मेलन का आगाज कुछ ही घंटों में होने जा रहा है। इस बार यह सम्मेलन भारत में हो रहा है, जिसमें पांचों सदस्य देश हिस्सा लेंगे। ब्रिक्स के गठन को दस वर्ष हो चुके हैं, और इन वर्षों में यह लगातार उन्नति की राह पर बढ़ा है। नतीजतन, अब इसे दुनिया के उभरते देशों का एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संघ माना जाने लगा है। इसके पक्ष में एक गौर करने वाली बात यह भी है कि ब्रिक्स की नींव रखने वाली पांचों आर्थिक ताकतें दुनिया की अर्थव्यवस्था और कारोबार में बड़ी हिस्सेदारी रखती हैं। ये वे देश हैं, जिनका यह मानना है कि दूसरे विश्व-युद्ध के बाद दुनिया के आर्थिक-प्रशासन को लेकर हुए ब्रेटन-वुड्स समझौते वैश्विक आर्थिक संतुलन को नहीं साध पा रहे। लिहाजा इसमें सुधार की मजबूत मांग उन मुल्कों द्वारा भी की जाती रही है, जो आर्थिक ताकत बनकर उभरे हैं। इससे इनकार नहीं कि सुधार के कुछ काम हुए हैं, मगर अब भी तराजू उन्हीं देशों की ओर झुका हुआ है, जिनका वर्चस्व शुरुआती दौर में था। एक तर्क यह भी है कि चूंकि उभरती अर्थव्यवस्थाएं अब दुनिया के सर्वाधिक गतिशील हिस्से के तौर पर देखी जाने लगी हैं, लिहाजा फैसले लेने की पुरानी संरचनाओं व प्रक्रियाओं को न्यायसंगत बनाना लाजिमी है। इस सोच ने पिछले कुछ वर्षों में अंतरराष्ट्रीय सहयोग के वैकल्पिक ढांचे को गढ़ने की मजबूत प्रेरणा दी है, जिसकी झलक हम मौजूदा वैश्विक तस्वीर में देख सकते हैं। ब्रिक्स के उदय के बाद प्रासंगिक विकल्पों की यह खोज और अधिक उन्नत हुई है।

ब्रिक्स की खासियत यह है कि पुराने स्थापित संस्थानों की मुखालफत किए बिना इसने नए वैश्विक संस्थानों के लिए खास जगह बनाई है। इसका सबूत पुरानी आर्थिक व्यवस्था में बदलाव की मांग के जोर पकड़ने के बावजूद उसके प्रति वैश्विक आकर्षण का बने रहना है। ब्रिक्स ने कभी यह मांग नहीं की कि वैश्विक आर्थिक ढांचे को पूरी तरह खारिज करके नया ढांचा तैयार किया जाए। शांति और सौहार्द की बात इसके तमाम विचार-विमर्शों में दोहराई जाती है। इसे बेशक मौजूदा वैश्विक व्यवस्था के लिए चुनौती माना जा सकता है, पर गैर-विघटनकारी रूप में। विकासशील देश लंबे अरसे से एक न्यायसंगत अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की खोज में रहे हैं, जो उनके सामूहिक हितों की रक्षा करे, और यह कहना गलत नहीं कि जरूरी सुधारों को अब तभी गति दी जा सकती है, जब ब्रिक्स में शामिल मजबूत आर्थिक ताकतें इसकी अगुवाई करें।

अपनी दशक भर की यात्रा में ब्रिक्स ने इस दिशा में कई उल्लेखनीय पहल भी की हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है, विकास बैंक की स्थापना का फैसला लेना। इसके लिए पूंजी की पर्याप्त व्यवस्था की गई है, ताकि दुनिया में विकासशील देशों के लिए मौजूद अंतर को पाटा जा सके। इसकी चाहत लंबे समय से रही है, मगर अब जब उभरते देश मजबूत हो रहे हैं और इस स्थिति में हैं कि अपने संसाधनों को बांट सकें, तो इसके परवान चढ़ने की संभावनाएं भरोसा जगाने लगी हैं। निश्चित रूप से विकास के इस नए प्रयास की बुनियाद चीन का विशाल संसाधन हो सकता है, जिसे भारत जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और ब्रिक्स के दूसरे सदस्यों का साथ मिलेगा। अच्छी बात यह है कि तमाम सदस्य देशों के बीच इस बैंक के बुनियादी ढांचे पर सहमति बन गई है, जिसमें बड़े पैमाने पर आकस्मिक रिजर्व फंड की व्यवस्था है।

इन उभरती अर्थव्यवस्थाओं का जिन-जिन आर्थिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण दखल है, वह अब साकार होने लगा है। इससे ब्रिक्स को एक ऐसा आयाम मिला है, जिसका अभाव पिछली कोशिशों में दिखता था। इसका एक नतीजा यह निकला है कि सदस्य देशों की आर्थिक उन्नति के लिए एक सामूहिक साधन के रूप में ब्रिक्स के मूल्यों पर जोर दिया जाने लगा है। हालांकि अब भी काफी कुछ चीजों पर विचार किया जाना बाकी है। आर्थिक नजरिये की तरह ही राजनीतिक मुद्दों पर तो मनन करना ही होगा, इसे उस ढांचे के तौर पर अपना विकास करना होगा, जो वैश्विक निर्यात के व्यापक मुद्दों पर सदस्य देशों की साझा राय रखे। पिछले शिखर सम्मेलन की विज्ञप्तियों पर नजर डालें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्रिक्स अब महज आर्थिक मुद्दों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका विस्तार व्यापक है। हालांकि इनमें कुछ मुद्दे विवादास्पद भी हैं, जो उभरती वैश्विक तस्वीर को बदरंग कर सकते हैं। फिर कुछ मौजूदा अंतरराष्ट्रीय समस्याएं इसके सदस्य देशों के लिए चिंता का विषय हैं, और यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कोई न कोई सदस्य गोवा सम्मेलन में इन मुद्दों को उठाएगा ही। सम्मेलन के अंत में जारी होने वाला दस्तावेज इसके सबूत बनेंगे।

जहां तक भारत का मामला है, तो हम आज भी सीमा-पार के आतंकवादी हमलों का दंश झेलने को मजबूर हैं। नई दिल्ली विश्व बिरादरी को इससे अवगत कराने में तेजी से जुटी हुई है, ताकि दोषी देश पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाया जा सके। ऐसी उम्मीद है कि गोवा में भारत अपनी इस चिंता को मजबूती से रखेगा और इस विषय में कठोर फैसले की ओर आगे बढ़ेगा। उम्मीद यह भी है कि जिस तरह से ऐसे सम्मेलन में इस मुद्दे पर समर्थन दिया जाता है, भारत को मिलेगा, मगर उसके द्वारा सुझाए गए कुछ उपाय को सामूहिक तौर पर शायद ही यह संघ कबूल करे। मसलन, चीन पाकिस्तान को बचाने की कोशिश कर सकता है। बेशक पाकिस्तान ब्रिक्स का हिस्सा नहीं है, मगर उस पर चर्चा होना अस्वाभाविक भी नहीं। इसी तरह, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पर अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने की भारत की कोशिशों को भी शायद ही यहां पर्याप्त तवज्जो मिले। कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं, जिन्हें दूसरे देश उठाना पसंद करेंगे। जैसे कि, सीरिया का मुद्दा। वहां रूस का व्यापक हस्तक्षेप है, और यह  आश्चर्यजनक होगा कि यह मुद्दा ब्रिक्स के इस सम्मेलन में न उठे। रूस यह जरूर चाहेगा कि उसकी चिंताओं पर सदस्य देश उसका साथ दें। इसी तरह, दक्षिण चीन सागर मसले पर चीन भी सदस्य देशों से अपने समर्थन की उम्मीद कर रहा होगा। इसके अलावा, सिल्क रोड, एशिया और हिंद महासागर में बुनियादी विकास से जुड़े प्रयासों और महासागरीय विवाद के अपने पक्ष जैसे मसले को भी वह सम्मेलन में उठा सकता है।

बेशक अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण एक समान स्थिति पर पहुंचने में मुश्किल आ सकती है, मगर यह अनुमान गलत नहीं कि शिखर सम्मेलन का स्वर सकारात्मक होगा, चाहे सभी मुद्दों पर सदस्य देशों की राय भले ही मेल न खाती हो। ब्रिक्स देशों ने पहले भी अपनी एकजुटता दिखाई है और गोवा सम्मेलन निश्चय ही इनके आम हितों को जोड़ने का एक महत्वपूर्ण सेतु बनेगा। हां, मेजबान देश होने के नाते भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि अपेक्षाकृत छोटे-छोटे विवाद इस सम्मेलन पर हावी न होने पाएं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


 

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