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सुलह की एक नई उम्मीद

अंग्रेजी में एक कहावत है- वेअर  देअर इज अ विल, देअर इज अ वे। इसका हिंदी तर्जुमा है- जहां चाह, वहां राह। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर...

सुलह की एक नई उम्मीद
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 23 Mar 2017 12:58 AM
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अंग्रेजी में एक कहावत है- वेअर  देअर इज अ विल, देअर इज अ वे। इसका हिंदी तर्जुमा है- जहां चाह, वहां राह। राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर की हालिया टिप्पणी काफी हद तक इस कहावत के अनुरूप है। देश के प्रधान न्यायाधीश का कहना है कि इस विवादित मसले को सुलझाने के लिए सभी पक्षों को मिल-बैठकर नए सिरे से प्रयास करना चाहिए और मध्यस्थों की सहायता से आपस में ही इसे सुलझा लेना चाहिए। जरूरत पड़ने पर उन्होंने अदालत की मध्यस्थता की बात भी कही है।
साफ है कि वह जन-भावना को ध्यान में रखकर इस विवाद का हल निकालना चाह रहे हैं। लिहाजा इस एक टिप्पणी से संभावना के कई द्वार खुल जाते हैं। मेरा भी यही मानना है कि इससे कोई न कोई रास्ता जरूर निकलेगा।

आज अगर हाशिम अंसारी जीवित होते, तो इसमें काफी मदद मिलती। बाबरी मस्जिद की कानूनी लड़ाई लड़ रहे उस शख्स की मानो आखिरी इच्छा भी यही थी कि उनके जीवित रहते अदालत का अंतिम फैसला आ जाए। वह आपसी सुलह के कितने कद्रदान थे, इसका अंदाजा उनकी उस चिंता से लगाया जा सकता है, जो उन्होंने खुद मेरे सामने जाहिर की थी। उनका कहना था कि हम बाहर खा-पी रहे हैं और वहां रामलला कानूनी बंधन में बंधे हैं। करोड़ों रुपये इस विवाद में खर्च हो रहे हैं। अगर ये रुपये अयोध्या पर खर्च होते, तो यह पूरा शहर नए सिरे से बस जाता। उनकी सोच वाकई अलहदा थी। यह अलग बात है कि कभी उनके मन में याचिका दायर करने की  बात आई होगी और उन्होंने ऐसा कर दिया, मगर वह मिल-बैठकर समाधान निकालने  को उत्सुक थे।

जाहिर है, अगर हाशिम आपसी रजामंदी को तैयार हो रहे थे, तो बाकी लोग भी राजी हो ही जाते। मगर उनके इंतकाल से इस प्रयास को काफी धक्का लगा। हालांकि, वहां कई और लोग भी हैं, जो कुछ इसी तरह की सोच रखते हैं। एक ऐसे ही ज्ञापन पर 10,502 स्थानीय लोगों ने अपने हस्ताक्षर किए हैं, जो शांतिपूर्ण समाधान की वकालत करता है। इस ज्ञापन की मुख्य बातें यही हैं कि इस मसले में अयोध्या-फैजाबाद निवासियों के अलावा किसी बाहरी का कोई दखल नहीं होगा। रामलला की पूजा जहां हो रही है, मंदिर वहीं बनेगा। यूसुफ के आरा मशीन के पास अधिगृहीत क्षेत्र में एक मस्जिद बनाने की इजाजत मिले। प्रशासन ने कई दूसरी मस्जिदों के मरम्मत-कार्य रोक रखे हैं, इस रोक को हटाया जाए। और मंदिर व मस्जिद एक साथ बनें, ताकि हिंदू और मुसलमान, दोनों साथ-साथ अपनी-अपनी इबादतगाहों में पूजा-इबादत कर सकें। इस ज्ञापन पर वहां के लोगों की सहमति यह संकेत करती है कि तनाव का दौर अब बीत चुका है और सभी पक्ष मिल-बैठकर मसले का समाधान निकालने को इच्छुक हैं।

उस दिन को भी याद कर लीजिए, जिस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के लखनऊ पूर्णपीठ ने अपना फैसला सुनाया था। 30 सितंबर, 2010 को अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए पूर्णपीठ ने ढांचे वाली जगह को तीन हिस्सों में बांट दिया था। इनमें एक हिस्सा रामलला को, सीता रसोई व राम चबूतरा निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा हिस्सा मुसलमानों को दे दिया था। यह फैसला दो-एक के अनुपात में था, यानी तीन जजों के पूर्णपीठ में दो जजों (माननीय न्यायमूर्ति एस यू खान और माननीय न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल) ने बहुमत के आधार पर यह समाधान ढूंढ़ा था। इस मामले में याचिका यह नहीं थी कि विवादित क्षेत्र को बांट दिया जाए। मसला यह था कि सब अपनी-अपनी इबादत की जगह तय करना चाहते थे। यही वजह है कि फैसला आने के बाद वैसा कोई तनाव नहीं दिखा, जिसकी आशंका जताई जा रही थी। 

अयोध्यावासियों के जरिये हमारे द्वारा जो शांति की पहल की गई, उसमें हमें हमेशा यही लगा कि लोग कोई न कोई रास्ता जरूर निकाल लेंगे। 18 मार्च, 2010 से लेकर 13 नवंबर, 2016 तक लगभग हर महीने हम अयोध्या-फैजाबाद जाते रहे। हमने रिपोर्ट तैयार की। कुछ लोगों का विरोध करना स्वाभाविक था। विरोध करने वाले हिंदू भी थे और मुसलमान भी। मगर हमारी कोशिश यही रही कि विरोध करने वाले तमाम लोग एक साथ बैठें और आम राय बनाएं। इस मसले के एक अन्य मुस्लिम पक्षकार हाजी महबूब भी सुलहनामे के पक्ष में रहे हैं। वह मंदिर बनाने के विरोध में कतई नहीं हैं, बस उतनी जगह छोड़ने की गुजारिश करते हैं, जहां बाबरी मस्जिद बनी थी।

हाजी महबूब, हाजी फेंकू के बेटे हैं, जिन्होंने कभी कहा था कि हम तो सुलह चाहते थे, मगर मस्जिद की शहादत हो गई। जहां बाबरी मस्जिद बनी थी, यदि वह जगह छोड़ दी जाए, तो पूरे अयोध्या में भी यदि मंदिर बनाया जाएगा, तो मुझे ऐतराज न होगा। मैंने उनकी यह टिप्पणी अपनी रिपोर्ट में भी दर्ज की थी। उनकी यह बात उचित लगती है। मस्जिद बनना वाकई जरूरी है। अगर मस्जिद नहीं रहेगी, तो वे लोग नमाज भला कहां पढ़ेंगे?
बहरहाल, हाल के वर्षों में एक अच्छी बात यह हुई है कि जो तमाम लोग उन दिनों बगावती सुर अपनाए हुए थे, वे अब शांति की राह बढ़ चले हैं। उन लोगों का यही कहना है कि अब शांति-सुलह हो जाए। वैसे भी, अगर अदालत की राह हम तकते रहे, तो इसमें न जाने कितने वर्ष लगेंगे, यह पता नहीं। अभी सर्वोच्च न्यायालय तमाम एविडेंस को ही तैयार कर रहा है। हाईकोर्ट के सामने के एडिवेंस को 17 बक्सों में रखा गया है। इन सभी का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा रहा है, जिसमें जाहिर तौर पर काफी लंबा वक्त लगेगा। शायद इसीलिए प्रधान न्यायाधीश ने सभी पक्षकारों को सुलह का एक मौका दिया है। मेरा यह मानना है कि अब ऐसी कोई बात नहीं होनी चाहिए, जिससे विवाद बढ़े। हर मुमकिन कोशिश इस मसले का शांतिपूर्ण हल निकालने की होनी चाहिए। प्रधान न्यायाधीश की टिप्पणी को भी इसी संदर्भ में लेने की जरूरत है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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