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सीमित विकल्पों में आर्थिक समझदारी

कहा जाता है कि शादियां ऊपर वाले के यहां तय होती हैं। बजट भी कुछ ऐसा ही है। इसमें अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि क्या होगा? साल-दर-साल आम लोगों में बजट के प्रति उत्सुकता बढ़ रही है। ऐसा उदारीकरण के...

सीमित विकल्पों में आर्थिक समझदारी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 14 Feb 2016 08:51 PM
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कहा जाता है कि शादियां ऊपर वाले के यहां तय होती हैं। बजट भी कुछ ऐसा ही है। इसमें अनुमान लगाना मुश्किल होता है कि क्या होगा? साल-दर-साल आम लोगों में बजट के प्रति उत्सुकता बढ़ रही है। ऐसा उदारीकरण के बावजूद हुआ है, जिसकी शुरुआत साल 1991 में हुई, और जिसने व्यापार, आधारभूत ढांचे, टेलीकॉम, व्यय नीतियों, कर-सुधार जैसे तमाम क्षेत्रों को प्रभावित किया।

 भले ही नीति-निर्माण एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, और बजट साल में एक बार ही बनता है। बावजूद इसके बजट निर्माण सालाना नीति-चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। मैंने पहले भी कई बार गुजारिश की है कि बजट की प्रक्रिया को गोपनीय रखने की परंपरा खत्म कर देनी चाहिए, ताकि पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके। ऐसा दुनिया के तमाम मुल्कों में होता भी है।

खैर, बजट बनाने के क्रम में कुछ घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्थितियों पर गौर किए जाने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय हालात की बात करें, तो तेल व कमोडिटी की कीमतें अब भी नीचे हैं। कई दूसरी अर्थव्यवस्थाओं को इससे भले नुकसान पहुंचा हो, पर इस स्थिति ने हमें फायदा पहुंचाया है। हमारे यहां पेट्रोलियम, तेल, इस्पात, धातुओं जैसे उत्पादों पर दी जाने वाली सब्सिडी कम हुई है। इससे दूसरे बाजारों में भी कीमत कम करने का दबाव उत्पादकों पर बढ़ा है। हालांकि, जापान में आर्थिक सुधार को लेकर आज भी भ्रम बरकरार है।

यूरोप शरणार्थियों के अवांछित आगमन के कारण पैदा हुई भू-राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। रूस के आर्थिक सुधार तेल की कीमतों के जाल में बुरी तरह उलझ गए हैं। लैटिन अमेरिका के कई देशों की आर्थिक हालत खस्ता है। अफ्रीकी अर्थव्यवस्था भी बेहतर स्थिति में नहीं है, जो कमोडिटी की कीमतें गिरने के साथ ही संसाधनों के सिकुड़ने की वजह से डगमग है। इन तमाम परिस्थितियों से जुड़कर मध्य-पूर्व और उसके संघर्षरत इलाकों की भू-राजनीतिक चुनौतियां भी वैश्विक अनिश्चितता को बढ़ा रही हैं।

इसी तरह, कुछ सवाल आंतरिक मोर्चे पर भी हैं। केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन ने विनिर्माण क्षेत्र में 9.5 फीसदी की वृद्धि का अनुमान लगाया है, जो पिछले वर्ष 5.5 फीसदी थी। यह संगठन चालू वित्त वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 7.6 फीसदी रहने का भी अनुमान लगा रहा है। बेशक इन आकलन का तरीका निष्पक्ष होता है, मगर यह शंका लगातार बनी हुई है कि क्या वाकई विकास दर 7.6 फीसदी रहेगी? क्या सेवा और विनिर्माण के क्षेत्र में तेज विकास होगा? अनुमानित व वास्तविक जीडीपी में अंतर तो है ही, थोक मूल्य सूचकांक भी काफी समय से नकारात्मक बना हुआ है। लिहाजा आगामी बजट में कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत फैसलों की जरूरत है।

इन फैसलों में पहला मुद्दा राजकोषीय घाटे को कम करने संबंधी सरकार के प्रयास बनाम नए प्रोत्साहन से जुड़ा है। आगामी वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 3.5 फीसदी रखने की बात वित्त मंत्री ने स्वीकारी थी। मगर दूसरी तरफ, वेतन आयोग व वन रैंक-वन पेंशन के मद में 1.2 लाख करोड़ रुपये के अतिरिक्त बोझ को देखते हुए यह सुझाव भी है कि मांग को देखते हुए सड़क, बंदरगाह व रेलवे जैसे बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाया जाना चाहिए।

इन मुद्दों पर राय बंटी हुई हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि विनिर्माण क्षेत्र में 9.5 फीसदी और सेवा क्षेत्र में 10.3 फीसदी के साथ यदि हमारी अर्थव्यवस्था 7.6 फीसदी या उससे अधिक की दर से बढ़ रही है, तो फिर नए प्रोत्साहन की जरूरत ही क्या? मगर कई लोगों का यह भी मानना है कि निजी निवेश में सुस्ती बनी हुई है, इसलिए बुनियादी ढांचे में अतिरिक्त निवेश किया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि राजकोषीय समेकन संबंधी नीतियों में बदलाव खतरनाक हो सकता है। इससे हमारी विश्वसनीयता व साख को नुकसान पहुंचेगा।

कई गैर-कर राजस्व माध्यमों के जरिये हम राजकोषीय समेकन की प्रक्रिया को पलटे बिना निजी निवेश बढ़ा सकते हैं। इसमें विनिवेश, स्पेक्ट्रम से होने वाली आय आदि शामिल है।

दूसरी चिंता बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली में तेज गिरावट की है। जिस तरह के दिशा-निर्देश भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर लगातार दे रहे हैं, उनसे पता चलता है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के लाभ में तेज गिरावट आई है और ऐसे कर्ज काफी ज्यादा हो गए हैं, जिनकी वसूली बैकों के लिए लगभग नामुमकिन है। इस स्थिति से कैसे निपटा जाए? इन कर्जों को निरस्त करना नैतिक खतरों को न्योता दे सकता है। आखिर पूरा समाज चंद बड़े कर्जदारों के अपराध की सजा क्यों भुगते? मुश्किल यह है कि बैंक बाजार से कर्ज नहीं ले सकते, क्योंकि बैंक अधिनियम के अनुसार, 51 फीसदी बैंक की संपत्ति पर सरकार का नियंत्रण है। बैंकों के कर्ज की पूरी भरपायी अगर सरकार करती है, तो इसका अर्थ है, उस पर भारी वित्तीय दबाव का बढ़ना। लिहाजा रिजर्व बैंक के गवर्नर का यह कहना सही है कि नरम रुख अपनाने का वक्त बीत चुका है।

सवाल कृषि अर्थव्यवस्था की बिगड़ती सेहत का भी है। देश में कुल सिंचित भूमि महज 33.5 फीसदी है, और बेहतर गुणवत्ता के बीज व खाद के मामले में हम चीन जैसे देशों से काफी पीछे हैं। ऐसे में, यह सोचना चाहिए कि सिंचाई परियोजनाओं में किस तरह का सुधार प्रभावी होगा? क्या उपभोक्ताओं की मांग के अनुरूप देश में फसल पद्धति में बदलाव किया जा सकता है? क्या कृषि कार्यों में अक्षय ऊर्जा बेहतर विकल्प हो सकता है? स्थिति यह है कि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े फल व सब्जी उत्पादक देशों में 40 फीसदी फल व सब्जियां उचित भंडारण और परिवहन व बाजार की बेहतर व्यवस्था न होने के कारण बर्बाद हो जाती हैं। क्या हर पंचायत में कोल्ड स्टोरेज की व्यवस्था और उचित बाजार तक तय वक्त पर इनका पहुंचना सुनिश्चित किया जा सकता है? अगर ऐसा संभव हुआ, तो ग्रामीणों की आमदनी तो बढ़ेगी ही, नया निवेश भी संभव होगा।

इसी तरह, प्रशासन की पहुंच और गुणवत्ता डिजिटल प्लेटफॉर्म को व्यापक बनाकर ही बढ़ाई जा सकती है। करीब ढाई लाख पंचायतों में महज 20,000 पंचायत ही फाइबर ऑप्टिक केबल से जुड़ सके हैं। अभी स्थिति यह है कि यूएसओएफ के करीब 28,000 करोड़ फंड बांटे ही नहीं गए हैं। उम्मीद है कि सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत इस योजना को आगे बढ़ाने की तरफ ध्यान दिया जाएगा। सवाल रोजगार का भी है। छोटी-बड़ी नौकरियों के साथ ही स्टार्ट-अप पर ध्यान देना होगा। यह सोचना चाहिए कि आखिर किस तरह की आर्थिक व्यवस्था उद्यमियों की नई पीढ़ी को बेहतर माहौल दे सकती है? क्या जन-धन योजना और मुद्रा जैसी कोशिशें उद्यमियों के इस नए वर्ग को लुभा सकती हैं?
बहरहाल, बजट निर्णय और विकल्प से जुड़ा है। इससे हर कोई संतुष्ट हो, यह संभव नहीं। मगर आदर्श स्थिति उसे ही कहते हैं, जब हम सही दिशा में चलें और ऐसे प्रयास करें, जिनसे वैश्विक आर्थिक झंझावात में भी देश की आर्थिक सेहत दुरुस्त बनी रहे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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