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FILM REVIEW: 'ग्लोबल बाबा'

बड़े सितारों और भारी-भरकम बजट वाली फिल्मों की भीड़-भाड़ में कई बार कुछ ऐसी फिल्में भी आती हैं, जो अच्छी कहानी और विषय-वस्तु होने के बावजूद ठीक से रिलीज नहीं हो पाती हैं। ठीक से प्रोमोशन न हो तो ऐसी...

FILM REVIEW:  'ग्लोबल बाबा'
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 11 Mar 2016 03:46 PM
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बड़े सितारों और भारी-भरकम बजट वाली फिल्मों की भीड़-भाड़ में कई बार कुछ ऐसी फिल्में भी आती हैं, जो अच्छी कहानी और विषय-वस्तु होने के बावजूद ठीक से रिलीज नहीं हो पाती हैं। ठीक से प्रोमोशन न हो तो ऐसी फिल्मों का पता ही नहीं चलता कि वे कम आयी और गयी। इस हफ्ते रिलीज हुई 'ग्लोबल बाबा' भी एक ऐसी ही फिल्म है, जो न केवल अपने नाम से ध्यान खींचती है, बल्कि अपनी कहानी और ट्रीटमेंट से भी थोड़ा तो विचलित करती ही है।

नए निर्देशक मनोज तिवारी की यह फिल्म उन बाबाओं और उनके गोरखधंधे पर प्रकाश डालती है, जो भोले-भाले भक्तों को ठगते हैं और धर्म के नाम पर सारे नियम-कायदों को ताक पर रख धड़ल्ले से अपना साम्रज्य चलाते हैं। हालांकि सारे बाबा ऐसे नहीं होते, लेकिन जिस तरह से आये दिन खबरों में बाबाओं के 'कारनामे' देखने-सुनने को मिलते हैं, उससे ये विषय काफी मौजू सा लगता है।

फिल्म शुरू होती है चिलम पहलवान (अभिमन्यु सिंह) नामक एक बदमाश और एक इंस्पेक्टर पी. सी. जैकब (रवि किशन) के बीच वार्तालाप से। जैकब ने पहलवान का एन्काउंटर करने की तैयारी कर रखी है। उसे प्रदेश की एक नेता भानुमति से हुक्म प्राप्त हुआ कि वह पहलवान को ठिकाने लगा दे जो कि भानुमति का ही प्यादा है। जैकब की गोलियां खा कर पहलवान दरिया में कूद जाता है और बचते-बचाते कुछ साधुओं के हाथ लग जाता है। साधु उसकी जान बचा लेते हैं। बस यही से पहलवान के जीवन की एक नई गाथा शुरू होती है।

संगम के तट पर उसकी मुलाकात एक मौनी बाबा उर्फ डमरू (पंकज त्रिपाठी) से होती है। डमरू, उसे ये गुंडागर्दी छोड़ बाबा बनने की सलाह देता है और ले जाता उसे कबीरगंज नामक एक छोटे शहर में। यहां इन दोनों को कोई नहीं जानता। दोनों यहां अपना धंधा जमाने लगते हैं। पहलवान, ग्लोबल बाबा के नाम से मशहूर होने लगता है, जो उसे डमरू ने ही दिया है। डमरू भी अब मौनी बाबा से डमरू बाबा बन जाता है और ग्लोबल बाबा का सारा कामकाज देखते लगता है।

अपने आश्रम के लिए ग्लोबल बाबा आदिवासियों के लिए आबंटित एक जमीन हथिया लेता है, जिसके खिलाफ इलाके के एक समाजसेवी भोला पंडित (संजय मिश्रा) को अफनी आवाज बुलंद करनी पड़ती है। देखते ही देखते जिले में ग्लोबल बाबा का वर्चस्व बढ़ने लगता है और वह स्थानीय नेता दल्लू यादव (अखिलेन्द्र मिश्रा) के लिए खतरा बन जाता है। आने वाले खतरे को भांप दल्लू यादव अपने चैनल की एक रिपोर्टर भावना शर्मा (संदीपा धर) को ग्लोबल बाबा के आश्रम की पोल-पट्टी खोलने के लिए भेजता है।

इसी दौरान जैकब का तबादला भी कबीरगंज हो जाता है। जैकब पहली ही नजर में पहलवान को पहचान जाता है और उसकी धर पकड़ के लिए उसके खिलाफ सबूत इकट्ठा करने लगता है। तभी भानुमति, ग्लोबल बाबा आगामी चुनाव में अपनी पार्टी का उम्मीदवार घोषित कर देता है और खार खाया दल्लू यादव बाबा के खिलाफ एक पर्दाफाश प्रेस सम्मेलन का आयोजन करता है, जहां भावना को बाबा के काले कारनामों का कच्चा-चिट्ठा लेकर पहुंचना है, लेकिन ऐन मौके पर ग्लोबल बाबा को सारी साजिश का पता चल जाता है और वो बड़ी होशियारी से अपना आखिरी दांव खेल जाता है।

इस दो घंटे की फिल्म में घटनाक्रम बड़ी तेजी से बजलते हैं। एक हिस्ट्रीशीटर बदमाश के प्रसिद्ध बाबा बनने की कहानी कई जगहों पर अपील भी करती है और पल पल रोमांच पैदा करती है। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद ये कहानी कोई बहुत चौंकाने वाला काम नहीं करती। कुछेक बाबाओं के आश्रम में क्या काला सफेद होता होगा, इससे आज आम जनता अच्छी तरह नहीं तो थोड़ी बहुत तो वाकिफ है ही। आश्रम के लिए जमीन हथिया लेना, फिर नेताओं के दबाव से अनाधिकृत से अधिकृत बनाना, चंदे में आने वाले लाखों-करोड़ों रु., नेताओं से मिलीभगत और रासलीलाएं तथा आबंडर आदि के बारे में अब तक बहुत कुछ लिखा और देखा जा चुका है। पर सूर्य कुमार उपाध्याय की ये कहानी बांधे जरूर रखती है। शायद इसकी खासियत भी यही है कि कोई बहुत नई बात न होने के बावजूद इसकी रोचकता बरकरार रहती है।

इस कहानी का सारा दारोमदार इसके किरदारों और कलाकारों के अभिनय पर टिका नजर आता है। रवि किशन, अभिमन्यु सिंह और पंकज त्रिपाठी जैसी बढि़या कलाकारों ने फिल्म में पल पल रस बनाए रखा है। खासतौर से पंकज त्रिपाठी का किरदार डमरू बाबा, जिसने फिल्म को हल्का-फुल्का काॠमेडी फ्लेवर दिया है। डमरू की तोतली जुबान पल हंसाती है। उसकी शैली और हावभाव अहसास कराते हैं कि किसी प्रसिद्ध बाबा का चमचा संभवत: ऐसा ही होता होगा।

आप इस फिल्म से 'पीके' और 'ओ माई गाॠड' जैसी उम्मीद न पालें तो बेहतर होगा, क्योंकि ये उस उद्देश्य पर नहीं है। लेकिन इस फिल्म में जिस ढंग से बिना लाग लपेट के बाबाओं (कुछेक) के काले कारनामों पर  एक तरह का कटाक्ष और प्रहार किया गया है, उससे आप एक बार को तो सहमत जरूर होंगे, क्योंकि छद्म नाम से ही सही आप फिल्म में दिखाए किरदारों और घटनाक्रमों को आसान से पहचान-समझ लेंगे। इसलिए ये फिल्म अगर कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं जगाती तो निराश भी नहीं करती। विशाल ठाकुर
 

सितारे : अभिमन्यु सिंह, संदीपा धर, पंकज त्रिपाठी, रवि किशन, संजय मिश्रा, अखिलेन्द्र मिश्रा
निर्देशक : मनोज तिवारी
निर्माता : विजय बंसल, प्रिया बंसल, हर्ष वर्धन ओझा
संगीत : रिपुल शर्मा, फैजान हुसैन, ऐंजल रोमन
गीत : मनोज मुंतशिर, प्रकाश झा
पटकथा-संवाद : विशाल विजय कुमार
कहानी : सूर्य कुमार उपाध्याय
रेटिंग : 2.5 स्टार

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