गर औरत आजाद होती..
स्वतंत्र होना, गुलाम होना, यह एक व्यक्ति तय नहीं करता, निजी स्तर पर एक सीमित दायरे में, थोड़ी-बहुत आजादी हासिल कर लेना, किसी को आजाद नहीं...

स्वतंत्र होना, गुलाम होना, यह एक व्यक्ति तय नहीं करता, निजी स्तर पर एक सीमित दायरे में, थोड़ी-बहुत आजादी हासिल कर लेना, किसी को आजाद नहीं करता। अपने घर और ऑफिस से बाहर अगर आप सड़क पर निकलती हैं और असुरक्षा का भय 24 घंटे में से एक घंटा भी आपके सिर पर है, तो आप सड़क पर चलने के लिए आजाद नहीं हैं। आप सामाजिक रूप से आजाद नहीं हैं। अगर आप महिला या किसी जाति विशेष की हैं और आपको किसी मंदिर-मस्जिद में जाने की मनाही है, तो आप धार्मिक रूप से आजाद नहीं हैं। यदि एक लड़की को पिता की संपत्ति में समान अधिकार नहीं और जनम भर घर का काम करने वाली पत्नी का पति की संपत्ति पर अधिकार नहीं, तो वह आर्थिक आजादी से बेदखल है।
ये कतिपय उदाहरण हैं, जिनसे यह समझा जा सकता है कि आजादी एक समाजिक क्वेस्ट है। एक बंद कमरे में बैठा व्यक्ति स्वतंत्र है, अपनी मर्जी से खाने, पहनने और अपना आचरण करने के लिए, पर एक सामाजिक स्पेस में यह स्वतंत्रता व्यक्ति नहीं, समाज तय करता है, धर्म से, कानून से, रिवाज से, संसाधन में साङोदारी से। इसलिए यह सोचने की बात है कि स्त्री की समस्या क्या केवल स्त्री की है? क्या पुरुष पूरी तरह आजाद है? घर चलाने का जुआ उसके कंधे पर भी तो है। एक खास तरह से चाहते, न चाहते हुए, उसे भी अपने जेंडर के रोल में फिट बैठना ही है। अगर स्त्री आजाद होती, तो क्या पुरुष भी और ज्यादा आजाद नहीं होता?
सुषमा नैथानी की फेसबुक वॉल से
