कितने अलग हैं राहुल और वरुण
राजशाही और पारिवारिक सत्ता को लेकर मेरे मन में कुछ उलझनें हैं। अपने यहां कई राज्यों में ये सब चल रहा है। लेकिन मैं उस पर कुछ नहीं कह रहा। अपने यहां उसे हिंदुस्तानी परंपरा के तौर पर मान लिया गया है।...
राजशाही और पारिवारिक सत्ता को लेकर मेरे मन में कुछ उलझनें हैं। अपने यहां कई राज्यों में ये सब चल रहा है। लेकिन मैं उस पर कुछ नहीं कह रहा। अपने यहां उसे हिंदुस्तानी परंपरा के तौर पर मान लिया गया है। शायद इसीलिए अपने राज्यों में अब्दुल्लाह, बादल, चौटाला, यादव, पवार, रेड्डी, नायडू और करुणानिधि हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी अपने राज्यों की राजनीति कर रहे हैं। केंद्र में नेहरू-गांधी परिवार तो है ही। हमारे पास वैसे भी विकल्प कम ही हैं। अलग-अलग परिवारों के बीच ही हमें चुनाव करना पड़ता है।
फिलहाल तो मैं केंद्र के विकल्पों को लेकर परेशान हूं। सोनिया गांधी और मेनका को ‘बाहरी’ माना जाता है। सोनिया को इसलिए कि वह इतालवी कैथोलिक हैं। और सिख होने की वजह से मेनका। सोनिया ने तो खुद को हिंदुस्तानियों से ज्यादा हिंदुस्तानी साबित कर दिया है। अब बाहरी-बाहरी चिल्लाने का भी लोगों पर असर नहीं होता। वह देश के लोगों की नब्ज पहचानती हैं। शायद इसीलिए उन्होंने देश की लगाम एक बेहद ईमानदार और वफादार शख्स मनमोहन सिंह को सौंप दी। मनमोहन ने भी अपनी कैबिनेट बेहतर लोगों से बनाई, जो अपना काम बखूबी जानते हैं। देश सचमुच बेहतर कर रहा है। यह अलग बात है कि इससे भी बेहतर हो सकता था। कांग्रेस सत्ता में इसलिए है, क्योंकि लोगों का उसमें भरोसा है। सोनिया और उनके बेटे राहुल की वजह से कांग्रेस लगातार आगे बढ़ रही है।
मेनका गांधी ने अलग रास्ता चुना। वह बीजेपी के हाथ में मोहरा बन गई हैं। बीजेपी ने ही उन्हें अपने राज में मंत्री बनाया था। ताकि नेहरू-गांधी परिवार का एक हिस्सा इधर भी बना रहे। मेनका ने अपने बेटे को भी राजनीति के लिए तैयार किया। दोनों मां-बेटे सांसद हैं। वरुण ने तो मुसलमानों के खिलाफ नफरत भरा भाषण दे कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली। अपनी हरकतों से दोनों मां-बेटों ने खुद को हाशिये पर ला खड़ा किया है।
उधर राहुल के सितारे चढ़ान पर हैं। वह नापतौल कर बोलते हैं। दूसरे नेताओं पर बोलते हुए यह खयाल रहता है कि कोई निजी आलोचना न हो जाए। वह निडर लीडर हैं। मायावती के राज में वह आराम से अपनी बात कहते हैं। शिवसेना के गढ़ में घुस कर राज्य से ऊपर उठने की बात करते हैं। वह शायद पहले हिंदुस्तानी नेता हैं, जिन्होंने बाल ठाकरे, उनके बेटे उद्धव और भतीजे राज की हरकतों के खिलाफ मोरचा खोला है। उनके घर में शान से घूम कर राहुल ने तीनों का मुंह बंद किया।
अश्लील उपन्यास!
वह जब पहली बार 1967 में प्रकाशित हुआ था, तो उस पर अश्लीलता का आरोप लगा था। पाबंदी जब हटी तो वह बंगला में बेस्टसेलर हो गया। उसके लेखक थे बुद्धदेव बसु और उपन्यास था ‘रातभोरे वृष्टि’। वह ‘कविता’ के संपादक थे। कवि और कथाकार थे। जब उनके उपन्यास पर पाबंदी लगी थी, उसी साल उन्हें ‘तपस्वी ओ तरंगिनी’ के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला था। 1972 में उन्हें पद्म भूषण मिला और दो साल बाद मरणोपरांत रवींद्र पुरस्कार। अब वही तथाकथित अश्लील उपन्यास अंगरेजी में आ रहा है। शिकागो यूनिवर्सिटी के बंगाली प्रोफेसर क्लिंटन बी. सीली ने उसका अनुवाद किया है। पेंगुइन से यह उपन्यास ‘इट रेन्ड ऑल नाइट’ के नाम से आ रहा है। मुझे तो वह कहीं से अश्लील नहीं लगा। आदमी-औरत के रिश्ते पर बेहतरीन रचना है वह। इसके पात्र मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे भद्रलोग हैं। आमतौर पर बंगालियों को अड्डे पर गपशप करना पसंद होता है। चाय की चुस्कियों के बीच वे क्रांति कर डालते हैं। ये ज्यादातर अड्डे आमतौर पर आदमियों के लिए होते हैं। उसकी कहानी नयांशु मुखर्जी के घर से जुड़ी है। वह कॉलेज लेक्चरर हैं। चाहते हैं कि उनकी खूबसूरत बीवी मालती अड्डे पर उनके साथ चले। वहां रवींद्र संगीत पर बातचीत होती है। वह बोरियत महसूस करती है। वहीं जयंतो आता है। वह पत्रकार है और ज्यादा जमीनी बातचीत करता है। दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगते हैं। वह कभी कभार घर भी चला आता है। एक दिन भरपूर बारिश होती है। लगता है पूरा कोलकता ही डूब गया है। मालती अकेली होती है और जयंतो चला आता है। नयांशु ऑफिस में है। घर लौट नहीं पाता। जयंतो वहां से जा नहीं पाता। पूरी रात बारिश होती है और जयंतो-मालती एक हो जाते हैं। मालती उस रात को भूल नहीं पाती।