सुरक्षित घर
सुप्रीम कोर्ट ने घर खरीदने के सपनों को सुरक्षित उड़ान दे दी है। एक बडे़ बिल्डर की मनमानी पर सख्त फैसला देते हुए कोर्ट ने न सिर्फ वर्तमान और भविष्य के घर खरीदारों के चेहरे चमकाने का काम किया है, बल्कि...
सुप्रीम कोर्ट ने घर खरीदने के सपनों को सुरक्षित उड़ान दे दी है। एक बडे़ बिल्डर की मनमानी पर सख्त फैसला देते हुए कोर्ट ने न सिर्फ वर्तमान और भविष्य के घर खरीदारों के चेहरे चमकाने का काम किया है, बल्कि भवन निर्माण से जुड़ी बड़ी जमात को कड़ा संदेश भी दिया है। पाई-पाई जोड़कर घर पाने का सपना देखने वालों के लिए वे शब्द संजीवनी का काम कर रहे थे, जब अदालत ने कहा- हमें इससे मतलब नहीं कि कंपनी जिए या मरे। आपको खरीदारों का पैसा लौटाना ही होगा। लंबे समय से बिल्डरों की अराजकता झेल रहे समाज के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला सचमुच बड़ी राहत देने वाला है। यह फैसला थोड़ा ठहरकर सोचने को भी मजबूर करता है। उन लोगों को भी, जो सपने देख रहे हैं और उन लोगों को भी, जो इसका फायदा उठा रहे हैं।
देश में योजनाबद्ध तरीके से भवन निर्माण की संस्कृति की शुरुआत 60 के दशक के आसपास हुई। तब सरकारें यह काम करती थीं और इनमें सरकारी एजेंसियों का ही पैसा लगता था। बैंकों से मिली कर्ज की सुविधा और आयकर में राहत ने घर का सपना आसान कर दिया था। नौकरी-पेशा वर्ग के लिए यह बड़ी राहत देने वाली चीजें थीं। धीरे-धीरे कॉलोनी की यह संस्कृति राज्यों की राजधानियों से निकलकर छोटेे शहरों की ओर बढ़ी। मकान बढ़ते गए, घर बनाने के सपने परवान चढ़ते गए। सपने बड़े हुए, तो भवन निर्माण भी एक नए उद्योग का रूप लेता दिखाई दिया और पता नहीं कब यह कुकरमुत्ते की तरह चारों ओर फैल गया।
सरकारी कॉलोनियों की गुणवत्ता पर सवाल खड़े हुए, तो निजी बिल्डरों के चकाचौंध भरे चमकदार निर्माण का आकर्षण बढ़ा। इस आकर्षण और चमक में हम ऐसा खोए कि हमने वे तमाम गलतियां करनी शुरू कर दीं, जो हम आलू और आम की खरीद में भी नहीं करना चाहते। रंगीन ब्रोशर, चमकदार फ्रंट ऑफिस और तैयार कर खड़े किए गए मॉडल फ्लैट के मोह में हम यह भी देखना भूल गए कि यह सब तैयार किस 'जमीन' पर हुआ है। हमने न्यूनतम पड़ताल की जरूरत भी नहीं समझी। इसी लापरवाही का लाभ भवन निर्माण को चोखा धंधा मान चुकी बिल्डर जमात ने उठाया। सपने जल्द पूरे करने का सपना दिखाकर भवन लागत की 80 से 90 प्रतिशत तक राशि वसूल ली गई और बाद में प्रोजेक्ट अधूरा रह गया। लाखों लोग अब ऐसे अधूरे सपने लिए परेशान घूम रहे हैं। इन्हें नई छत तो मिल नहीं पाई, कर्ज का ब्याज चुकाने में वर्तमान छत बचाने के भी लाले पड़ गए। ऐसे खरीदार 'गलत सिर्फ दूसरों के साथ होता है, हमारे साथ तो ऐसा नहीं होगा' वाले सिद्धांत पर चलने, यानी दूसरों को सीख देने वाले होते हैं और बार-बार मुसीबत में फंसते हैं। बिल्डरों को तो ऐसे ही खरीदार का इंतजार रहता है।
सरकार ने हाल ही में रियल एस्टेट रेगुलेटरी ऐक्ट बनाकर ऐसी धांधलियों से राहत देने की एक बड़ी कोशिश तो की है, लेकिन कानून सिर्फ बिल्डरों की ओर से डील में पारदर्शिता और प्रोजेक्ट में विलंब की स्थिति में भरपायी यानी मुआवजे की बात करता है। निर्माणाधीन भवन, यानी सौंपे जाने के न खत्म होने वाले इंतजार इसकी नकेल से फिलहाल आजाद हैं। ऐसे में, यूपी और हरियाणा जैसे राज्यों में कई मामलों में यह मांग सामने आई है कि ऐसे अधर में लटके प्रोजेक्ट को भी इस कानून के दायरे में लाया जाए। यहां ध्यान देने की बात यह भी है कि अदालतें और कानून तो हमें बार-बार आगाह करते हैं, राहत भी देते हैं। इसके साथ ही जरूरत वह समझदारी विकसित करने की भी है, जब हम इन सारी कमियों की खुद पड़ताल कर रहे होंगे और अपनी जिंदगी की कमाई को यूं ही दांव पर नहीं लगने देंगे।