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असंतोष की आवाजें

कोई भी पार्टी जब चुनाव हारती है, और खास तौर पर अगर वह हार वैसी जबर्दस्त हो, जैसी कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार है, तो पार्टी में असंतोष के स्वर उभरने लाजिमी हैं। भाजपा में असंतोष इसलिए भी...

असंतोष की आवाजें
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 12 Nov 2015 09:52 PM
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कोई भी पार्टी जब चुनाव हारती है, और खास तौर पर अगर वह हार वैसी जबर्दस्त हो, जैसी कि बिहार में भारतीय जनता पार्टी की हार है, तो पार्टी में असंतोष के स्वर उभरने लाजिमी हैं। भाजपा में असंतोष इसलिए भी ज्यादा मुखर हो रहा है, क्योंकि पिछले साल लोकसभा चुनाव के साथ भाजपा में संगठन के स्तर पर भी सत्ता परिवर्तन हुआ।

2014 के लोकसभा चुनावों के साथ ही नरेंद्र मोदी भाजपा के सर्वोच्च नेता बन गए, जिसके बाद उन्होंने कई पुराने राजनेताओं को किनारे कर दिया। अपने सबसे करीबी गुजरात के नेता अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनवा दिया और पार्टी के पहले से प्रभावशाली नेताओं में से सिर्फ अरुण जेटली को नए सत्ता समीकरण में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली, बाकी सब अपेक्षाकृत अप्रभावी हो गए। वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार, यशवंत सिन्हा वगैरह को लगभग रिटायरमेंट की हालत में ला दिया गया। जब तक मोदी लहर थी, सब ठीक था, पर दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने इस लहर के उतार का संकेत दे दिया था। बिहार के नतीजों ने अंतिम रूप से साबित कर दिया कि भले ही मोदी अब भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन वह सर्वशक्तिमान नहीं हैं और अकेले सारी लड़ाइयां नहीं जीत सकते।

ऐसे में, पार्टी में किनारे कर दिए गए लोगों का मुखर होना स्वाभाविक ही था। पार्टी के बुजुर्गों की बगावत ने नरेंद्र मोदी के पार्टी पर एकाधिकार को बड़ी चुनौती दी है। बिहार के कई नेता भी असंतोष व्यक्त कर चुके हैं। बिहार में भी नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने राज्य के स्थापित नेताओं को किनारे कर सीधे दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं-कार्यकर्ताओं के जरिए चुनाव जीतने की रणनीति बनाई थी, जो नाकाम रही। वहां जिन नेताओं को लगता है कि वे किनारे कर दिए गए या जो पार्टी की गलत रणनीति की वजह से नाकाम रहे, वे अब अपना विरोध दर्ज कर रहे हैं। इस असंतोष से मोदी-शाह के नेतृत्व को सीधे-सीधे कोई खतरा नहीं है, लेकिन उनकी स्थिति कमजोर हुई है। कामयाबी विरोधियों को चुप करवा देती है, नाकामी के बाद गलत आलोचना भी विश्वसनीय लगने लगती है। मोदी की एक बड़ी समस्या यह है कि पार्टी के जिन वाचाल कट्टरपंथियों की वजह से उन्हें देश-विदेश में आलोचना झेलनी पड़ रही है, वे कट्टरपंथी भी मोदी के पक्के समर्थक नहीं हैं।

उनमें से कई तो इसलिए ज्यादा उग्र बने रहते हैं, ताकि मोदी अपनी मध्यमार्गी या उदार छवि न बना लें। ये सभी संघ परिवार के तमाम संगठनों से जुड़े हैं, जिनका नियंत्रण भाजपा नहीं, आरएसएस के हाथ में है। इस असंतोष से बड़ी मुश्किल मोदी के लिए यह है कि दो साल खराब मानसून की वजह से अर्थव्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है, उद्योग-व्यापार में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई है, इसलिए आम जनता भी उस तरह मोदी समर्थक और प्रशंसक नहीं रही है, जैसी डेढ़ साल पहले थी।

नरेंद्र मोदी काफी समझदार हैं और अमित शाह भी पूरी तरह राजनीतिक व्यक्ति हैं, इसलिए वे हालात को समझ रहे होंगे। शायद इस उथल-पुथल के बाद मोदी नेतृत्व का कुछ विकेंद्रीकरण करना चाहें। उन्हें संगठन और प्रशासन, दोनों जगहों पर ज्यादा अधिकार दूसरों को देने होंगे और वैचारिक या व्यक्तिगत रूप से असहमत, पर  प्रतिभाशाली व प्रभावशाली लोगों को साथ लाना होगा। दूसरी ओर, उन्हें सख्ती से हिंदुत्ववादी संगठन व लोगों की सीमाएं तय करनी होंगी, ताकि वे नीति और राजनीति में नुकसानदेह न साबित हों। उन्हें पार्टी के असंतुष्टों के साथ ही विपक्ष से भी रिश्ते जोड़ने होंगे, तभी वह अपने विकास के एजेंडे पर काम कर पाएंगे। 'सबका साथ-सबका विकास' से ही वह अपनी स्थिति फिर से मजबूत कर सकते हैं।

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