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दिमाग का आहार

भारत में शाकाहार और मांसाहार की बहस हिंसक और सांप्रदायिक हो चली है, लेकिन यह बहस इन दिनों पूरी दुनिया में चल रही है। वहां यह बहस धार्मिक न होकर नैतिक या पर्यावरण से संबंधित है। पश्चिम में जो लोग...

दिमाग का आहार
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 18 Oct 2015 09:35 PM
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भारत में शाकाहार और मांसाहार की बहस हिंसक और सांप्रदायिक हो चली है, लेकिन यह बहस इन दिनों पूरी दुनिया में चल रही है। वहां यह बहस धार्मिक न होकर नैतिक या पर्यावरण से संबंधित है। पश्चिम में जो लोग शाकाहार के समर्थक हैं, वे भी अक्सर उग्र हो जाते हैं। जो लोग स्वास्थ्य के कारणों से शाकाहारी हो गए हैं, वे उग्र तो नहीं होते, लेकिन शाकाहार के प्रचार में उत्साह उनमें भी खूब दिखता है। पश्चिम में एक और श्रेणी शाकाहारियों की है, जिन्हें 'वेजन' कहते हैं। ये लोग पशुओं से मिलने वाला कोई भी आहार यानी दूध वगैरह भी नहीं लेते। शाकाहारियों की एक दलील यह है कि मनुष्य मूलत: शाकाहारी प्राणी है और मांसाहार उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है। एक और संप्रदाय चल पड़ा है, जिसका कहना है कि मनुष्य की समस्याएं इसलिए हैं कि वह प्रकृति से दूर हो गया है। वे न सिर्फ मांसाहार का, बल्कि पकाकर खाने का भी विरोध करते हैं। इनका कहना है कि कच्चे कंद-मूल फल खाने से ही इंसान का उद्धार होगा।

हम जानते हैं कि इंसान और अन्य जीवों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इंसान का दिमाग बहुत विकसित होता है। मनुष्य एक ऐसा जीव है, जिसका दिमाग शरीर के आकार के हिसाब से बहुत बड़ा होता है। हमारा दिमाग बड़ा और जटिल होता है, इसलिए उसकी ऊर्जा की जरूरत भी बहुत ज्यादा होती है। हमारे भोजन से जितनी ऊर्जा मिलती है, उसका 20 प्रतिशत अकेला दिमाग में खप जाता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इंसान के दिमाग के विकास का सीधा संबंध मांसाहार और खाना पकाने के आविष्कार से है। मांसाहार और खाने को पकाकर खाने से आहार की कम मात्रा में ज्यादा पोषण मिलता था, जो कि दिमाग के तेज विकास के लिए जरूरी था। इंसान ने लगभग 80 हजार साल पहले मांस खाना शुरू किया और उसके बाद अन्य वानरों से उसके अलग होने की प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई। उसके पहले वह अन्य वानर प्रजातियों जैसा ही था। लगभग 20 हजार साल पहले इंसान ने आग से भोजन को पकाना सीखा और वह तेजी से सभ्यता की सीढि़यां चढ़ने के काबिल हुआ। कच्चा खाना खाने से दिमाग के विकास लायक पोषण मिलना मुमकिन ही नहीं था। गुरिल्ला जैसे जीव लगभग दिन भर चरते रहते हैं, तब जाकर उन्हें पूरा पोषण मिलता है, जबकि उनका दिमाग उतनी ऊर्जा खर्च नहीं करता, जितनी इंसानी दिमाग करता है। हम लोग दिन भर में सिर्फ घंटा-डेढ़ घंटा खाने पर खर्च करते हैं और फिर भी हमारी फिक्र यह होती है कि कैलोरी ज्यादा तो नहीं हो गई।

इसका अर्थ यह नहीं कि शाकाहार की अवधारणा बेकार है। आधुनिक समय में शाकाहार के अपने फायदे हैं और हमें कई तरह के शाकाहारी खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं, जिनसे पूरा पोषण मिल जाए। अपेक्षाकृत साधनहीन लोगों को इतने प्रकार के खाद्य पदार्थ मिलना मुश्किल होता है। इसलिए शाकाहारी गरीब लोगों के कुपोषित होने की आशंका ज्यादा होती है। भारत से भी ज्यादा गरीब देशों में भारत के मुकाबले कुपोषण के कम होने की एक वजह यह भी बताई जाती है कि वहां के गरीब तरह-तरह का सस्ता मांस खा सकते हैं, जबकि भारत में शाकाहारी होने का रिवाज ज्यादा है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि हर तरह का शाकाहारी भोजन स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो, ऐसा आवश्यक नहीं। तला हुआ खाना स्वास्थ्य के लिए मांसाहारी भोजन से ज्यादा हानिकारक है। शाकाहारी जंक फूड से मांसाहारी जंक फूड भी इसलिए बेहतर है कि उसमें पोषक तत्व ज्यादा होते हैं। जरूरी यह है कि शाकाहार-मांसाहार को हिंसक विवाद का नहीं, बल्कि समझदारी भरा आचार-व्यवहार का मुद्दा बनाया जाए।

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