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आरक्षण का विस्तार

आरक्षण का मुद्दा इन दिनों नए सिरे से विवादास्पद होता जा रहा है। शुरुआत सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाटों के लिए आरक्षण के सरकारी फैसले को रद्द करने से हुई। अब गुजरात में पटेल समुदाय के आरक्षण आंदोलन ने...

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लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 23 Sep 2015 10:18 PM
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आरक्षण का मुद्दा इन दिनों नए सिरे से विवादास्पद होता जा रहा है। शुरुआत सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाटों के लिए आरक्षण के सरकारी फैसले को रद्द करने से हुई।

अब गुजरात में पटेल समुदाय के आरक्षण आंदोलन ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत की आरक्षण की समीक्षा को लेकर टिप्पणी से भी बवाल हो गया है, खासकर बिहार विधानसभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा के लिए भागवत ने असुविधाजनक स्थिति पैदा कर दी है।

अब राजस्थान सरकार ने आरक्षण पर दो नए कानून बनाए हैं, जिन पर विवाद होगा। राजस्थान आरक्षण को लेकर विवादों में उलझता रहा है। पिछली बार जब वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री बनी थीं, तब उन्होंने अपने चुनावी वादे के मुताबिक जाटों को आरक्षण दिया था।

इसके बाद राजस्थान के गुर्जर पिछड़ी जाति से जनजाति समुदाय में जाने के लिए आंदोलन पर उतर आए, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि पिछड़ी जाति वर्ग में काफी ताकतवर जातियों के आ जाने से प्रतिस्पर्द्धा बहुत कड़ी हो गई है। गुर्जरों की निगाह में राजस्थान का मीणा समुदाय था, जिसे जनजाति वर्ग में आने का बड़ा फायदा मिला। गुर्जर गाहे-बगाहे अपना आंदोलन चलाते ही रहे हैं।

राजस्थान सरकार ने एक विशेष पिछड़ी जाति वर्ग बनाकर उसे एक प्रतिशत आरक्षण दिया। हालांकि गुर्जर इससे भी संतुष्ट नहीं हैं। अब राजस्थान सरकार ने आरक्षण की तमाम उलझनों को सुलझाने के लिए ये दो विधेयक पारित किए हैं। एक विधेयक के जरिए विशेष पिछड़ी जाति वर्ग के लिए आरक्षण बढ़ाकर पांच प्रतिशत कर दिया है।

आरक्षण बढ़ाने से यह खतरा तो है ही कि ऊंची जातियां नाराज हो जाएं, जो भाजपा की समर्थक रही हैं। उन्हें खुश करने के लिए सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से पिछडे़ वर्ग को 14 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। इस तरह, सभी वर्गों को खुश करने की कवायद राजस्थान सरकार ने की है।

इसमें एक ही समस्या है कि न्यायपालिका इस पर आपत्ति कर सकती है। न्यायपालिका की आपत्ति दो मुद्दों पर हो सकती है। पहली आपत्ति इसलिए होगी कि इन प्रावधानों के बाद राजस्थान में कुल आरक्षण 68 प्रतिशत हो जाएगा, यानी सामान्य श्रेणी के लिए सिर्फ 32 प्रतिशत स्थान बचे रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट एक से ज्यादा बार यह फैसला सुना चुका है कि कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से ऊपर नहीं जा सकता।

इस मुद्दे पर अदालत में इन प्रावधानों को चुनौती मिल सकती है। दूसरा मसला यह है कि संविधान में एंग्लो इंडियन समुदाय के अलावा तीन ही ऐसे विशेष वर्गों का उल्लेख है। ऐसे में, सवर्ण जातियों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को आरक्षण देना संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ माना जा सकता है। अब राजस्थान सरकार ने केंद्र से आग्रह किया है कि संविधान में संशोधन करके इन विधेयकों को नौवें अनुच्छेद की धारा 31बी के तहत लाया जाए। नौवें अनुच्छेद के कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती।

यह काम उतना आसान भी नहीं होगा, क्योंकि संविधान संशोधन करने में काफी पापड़ बेलने होंगे। हालांकि ज्यादातर राजनीतिक पार्टियां किसी को भी आरक्षण देने का विरोध नहीं कर पाएंगी, लेकिन वे तकनीकी या अन्य अड़ंगे तो लगा ही सकती हैं।

सुप्रीम कोर्ट यह फैसला दे ही चुका है कि जो भी कानून संविधान की मूल भावना के विरुद्ध हों, उनकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है। वैसे, राजस्थान सरकार यह कह सकती है कि उसने पूरी कोशिश की थी, लेकिन न्यायपालिका ने प्रस्तावों को रोक दिया। आरक्षण के राजनीतिक इस्तेमाल के अपने खतरे हैं, लेकिन राजनीतिक पार्टियां ये खतरे उठाने से बाज नहीं आतीं।

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