गरमी की मार
चिलचिलाती धूप और लू हर जगह परेशान कर रही है- मैदानी इलाकों में ही नहीं, पहाड़ों पर भी। लेकिन सबसे बुरी खबरें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से आ रही हैं। इन दोनों ही प्रदेशों में पिछले कुछ दिनों में भीषण...
चिलचिलाती धूप और लू हर जगह परेशान कर रही है- मैदानी इलाकों में ही नहीं, पहाड़ों पर भी। लेकिन सबसे बुरी खबरें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से आ रही हैं। इन दोनों ही प्रदेशों में पिछले कुछ दिनों में भीषण गरमी ने तकरीबन 750 लोगों की जान ले ली। यह आंकड़ा इस लिहाज से बहुत बड़ा है कि सन 2000 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के एक अध्ययन के अनुसार देश में हर साल औसतन 153 लोग गरमी के कारण अपनी जान गंवा बैठते हैं। लेकिन यह भी सच है कि किसी-किसी साल गरमी इतनी ज्यादा हो जाती है कि समस्याओं के साथ ही यह आंकड़ा कई गुना बढ़ जाता है। जैसे 2003 में आंध्र प्रदेश में भीषण गरमी के कारण तीन हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी। उस समय तेलंगाना अलग राज्य नहीं बना था और वह आंध्र प्रदेश का ही हिस्सा था। शायद यह साल भी भीषण गरमी वाला ऐसा ही अपवाद वर्ष है। लेकिन जो लोग इस गरमी में जान गंवाते हैं, उनकी पृष्ठभूमि आमतौर पर एक जैसी ही होती है और उसमें अपवाद नहीं होते।
गरमी में जान गंवाने वाले ज्यादातर गरीब और बुजुर्ग होते हैं। इनमें भी ज्यादातर लोग दिहाड़ी मजदूर होते हैं या फिर रिक्शा चलाने जैसे काम करते हैं। और यह बात सिर्फ गरमी की नहीं है, उत्तर भारत में हर साल भीषण सर्दी का शिकार बनने वाले लोग भी आमतौर पर इन्हीं वर्गों के होते हैं, और अतिवृष्टि के बाद जब बाढ़ आती है, तब भी इन्हीं वर्गों के लोग सबसे पहले उसका शिकार बनते हैं। जाहिर है कि ऐसे लोगों को मौसम नहीं मारता, वह गरीबी मारती है, जो उन्हें झुलसा देने वाली गरमी में भी बाहर निकलने की मजबूरी देती है।
गरमी जब इस तरह से बढ़ती है, तो तुरंत ही यह भी कहा जाने लगता है कि यह सब ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है। यह ठीक है कि पर्यावरण बदल रहा है और ग्लोबल वार्मिंग को हमारे युग के एक सच के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। फिर भी इस बात को अभी शायद पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि हर कुछ साल के अंतराल पर आ जाने वाली भीषण गरमी या कंपकंपाती सर्दी इस ग्लोबल वार्मिंग का ही परिणाम है। लेकिन गरमी की वजह से मरने वालों की बड़ी संख्या यह तो बताती ही है कि हम मौसम की इस हर कुछ साल बाद आने वाली अति तक के लिए नहीं तैयार हैं। ऐसे में, अगर सचमुच ग्लोबल वार्मिंग हाजिर हो गई, तो हम उसका मुकाबला कैसे कर पाएंगे? भीषण गरमी का शिकार बन रहे लोगों की संख्या यह भी याद दिला रही है कि पर्यावरण और मौसम के बदलाव को लेकर गंभीर होने का समय आ गया है।
दिलचस्प बात यह है कि हमारे देश में भीषण सर्दी और बाढ़ को तो प्राकृतिक आपदा माना जाता है, लेकिन झुलसा देने वाली गरमी को प्राकृतिक आपदा मानने का कोई प्रावधान सरकारी नियम-कायदों में नहीं है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने इसकी सिफारिश जरूर की है, लेकिन उसके आगे कुछ नहीं हुआ। ऐसे में, भीषण गरमी के बावजूद सरकारों पर लोगों की जान बचाने का कोई दबाव नहीं रहता। वे बस एडवाइजरी जारी कर देती हैं कि लोग इस गरमी में क्या करें और क्या-क्या न करें। एक दौर में सरकार से इतर समाज खुद मौसम की मार से लोगों को बचाने के काम अपने स्तर पर करता था। धार्मिक और सामाजिक संस्थाएं लोगों को पानी पिलाने के लिए जगह-जगह पौसला लगाती थीं। यहां तक कि पशु-पक्षियों के लिए भी पानी पीने का इंतजाम किया जाता था। सड़कों के किनारे पेड़ भी इसीलिए लगाए जाते थे। लेकिन विकास के इस नए दौर में ये काम भी अब बंद हो गए हैं।