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स्वायत्तता का सवाल

परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर के आईआईटी मुंबई के संचालक मंडल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से जो विवाद खड़ा हुआ है, उससे बचा जा सकता था। इस मुद्दे में कांग्रेस को राजनीतिक संभावना भी नजर आई और उसने...

स्वायत्तता का सवाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 18 Mar 2015 10:11 PM
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परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर के आईआईटी मुंबई के संचालक मंडल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से जो विवाद खड़ा हुआ है, उससे बचा जा सकता था। इस मुद्दे में कांग्रेस को राजनीतिक संभावना भी नजर आई और उसने संसद में यह मुद्दा उठा दिया। काकोडकर ने इस्तीफा इस वजह से दिया था कि वह कुछ आईआईटी में निदेशकों की नियुक्ति के मामले में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी से सहमत नहीं हुए। आईआईटी और सरकार के बीच टकराव का यह दूसरा मामला है, जो एनडीए सरकार के कार्यकाल में सामने आया है। इसके पहले आईआईटी दिल्ली के निदेशक रघुनाथ शेवगांवकर भी इस्तीफा दे चुके हैं। ये विवाद सरकार और आईआईटी की छवि के लिए ठीक नहीं हैं। आईआईटी ऐसे शिक्षा संस्थान हैं, जिनकी दुनिया भर में प्रतिष्ठा है। पूरी दुनिया में शिक्षा और कौशल के मामले में आईआईटी शायद सबसे बड़ा भारतीय ब्रांड है। भारत में और बाकी दुनिया में भी आईआईटी से पढ़े हुए लोग तमाम उद्योगों के शीर्ष पर मौजूद हैं। देश के अन्य किसी भी शिक्षा संस्थान के छात्रों का इतना अच्छा रिकॉर्ड नहीं है। यह इस बात का प्रमाण है कि भले ही कुछ कमियां हों, मगर आईआईटी संस्थान अच्छा काम कर रहे हैं।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में इतनी ज्यादा समस्याएं हैं कि उन्हें ठीक करने में किसी भी मानव संसाधन मंत्री की सारी ऊर्जा लग सकती है। ऐसे में, उन संस्थानों को छेड़ने का क्या तुक है, जो अपना काम अच्छी तरह कर रहे हैं? वैसे भी यह कहावत है कि जो चीज ठीक काम कर रही हो, उसे सुधारने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। खास तौर पर तब, जब ठीक करने के लिए और कई सारे संस्थान हैं। आईआईटी की उपलब्धियों के पीछे उनकी अपेक्षाकृत स्वायत्तता की बड़ी भूमिका है, इसी वजह से तमाम क्षेत्रों के लोग आईआईटी से जुड़ना चाहते हैं। लेकिन बड़ी समस्या यह है कि सरकार से जुड़े लोग यह मानते हैं कि अगर वे किसी संस्थान को पैसा देते हैं, तो उस पर उनका नियंत्रण भी होना चाहिए। शेवगांवकर से विवाद भी नियंत्रण को लेकर ही हुआ था और काकोडकर के विवाद में भी यही मुद्दा है। नियंत्रण की इच्छा रखने वालों में नौकरशाह भी हो सकते हैं और राजनीतिक लोग भी। कांग्रेस इसे मुद्दा बना रही है, पर तमाम ऐसे संस्थानों में राजनीतिक नियुक्तियां करने का उसका भी रिकॉर्ड है। संघ परिवार से जुड़े लोगों को यह लगता है कि कांग्रेस के राज में उससे जुड़े या अपेक्षाकृत वामपंथी रुझान वाले लोगों का अकादमिक संस्थानों पर कब्जा हो गया है और अब उनकी सरकार है, तो उनका वर्चस्व होना जरूरी है। इस वजह से भी कई विवाद खड़े हो रहे हैं।

अकादमिक संस्थानों पर वर्चस्व का विचार ही मूलत: गलत है। अकादमिक संस्थानों को भी अकादमिक श्रेष्ठता को अपनी कसौटी बनाना चाहिए, इस या उस राजनीतिक विचारधारा या सरकार से रिश्तों को नहीं। हमारे यहां संस्थानों की स्वायत्तता की अवधारणा के रास्ते में तमाम रुकावटें हैं, जबकि यह प्रमाणित है कि दुनिया में जितने भी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, अकादमिक संस्थान हैं, वे राजनीतिक-प्रशासनिक दखलंदाजी से दूर रहे हैं। हमें अगर ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में आगे बढ़ना है, तो संस्थानों और उनमें काम कर रहे लोगों को स्वायत्तता देनी ही होगी। श्रेष्ठ प्रतिभाएं भी ऐसे संस्थानों से ही जुड़ना पसंद करती हैं, जहां उन्हें काम करने की आजादी हो। श्रेष्ठता को अगर हमारे संस्थानों की कसौटी बनाना है, तो सरकार से जुड़े लोगों को अपना रवैया बदलना होगा। आईआईटी जैसे संस्थानों की प्रतिष्ठा धूमिल हो, तो यह किसी के लिए अच्छा नहीं है।

 

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