मंदिर में महिलाएं
शनि शिंगणापुर मंदिर ट्रस्ट ने आखिरकार मंदिर के मुख्य स्थान तक महिलाओं के प्रवेश को मान्यता दे दी है, हालांकि अब भी महिलाओं की राह पूरी तरह आसान नहीं हुई है, क्योंकि शिंगणापुर गांव का नेतृत्व महिलाओं...
शनि शिंगणापुर मंदिर ट्रस्ट ने आखिरकार मंदिर के मुख्य स्थान तक महिलाओं के प्रवेश को मान्यता दे दी है, हालांकि अब भी महिलाओं की राह पूरी तरह आसान नहीं हुई है, क्योंकि शिंगणापुर गांव का नेतृत्व महिलाओं के प्रवेश के अब भी खिलाफ है और उसने 'शिंगणापुर' बंद का आह्वान किया है।
इससे यह आशंका पैदा होती है कि जो महिलाएं मंदिर में शनि की प्रस्तर प्रतिमा तक जाने की कोशिश करेंगी, उनका वहां विरोध हो सकता है। गांव की पंचायत का विशेष गुस्सा भूमाता रणरागिणी ब्रिगेड नाम की संस्था के खिलाफ है, जिसने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया है। मगर अब पुलिस व प्रशासन को अदालत का और मंदिर ट्रस्ट का फैसला लागू कराने के लिए सख्त कदम उठाने चाहिए। अब तक सरकार का रवैया इस मुद्दे पर ढुलमुल रहा है, क्योंकि वह गांव के प्रभावशाली लोगों और कुछ धार्मिक नेताओं के खिलाफ नहीं जाना चाहती, पर अब सरकार को आगे बढ़कर सांविधानिक मूल्यों और न्यायपालिका के आदेश की रक्षा करनी चाहिए।
फिलहाल तो मंदिर ट्रस्ट ने समझदारी भरा फैसला किया है, हालांकि हो सकता है कि यह फैसला उसे परिस्थितियों के दबाव में करना पड़ा हो। भारतीय नव वर्ष को महाराष्ट्र में गुडीपाड़वा के रूप में मनाया जाता है, और मराठी संस्कृति में इस पर्व का विशेष महत्व है। इस दिन अदालत के फैसले की अवहेलना करते हुए कई स्थानीय पुरुष उस चबूतरे पर पहुंच गए, जहां शनि की प्रतिमा है, और उन्होंने प्रतिमा को दूध व तेल से नहलाया। गुडीपाड़वा के दिन की यह स्थानीय रस्म रही होगी, लेकिन इससे विवाद होने की आशंका थी, इसलिए शायद मंदिर ट्रस्ट ने महिलाओं को भी चबूतरे पर चढ़ने की इजाजत दे दी। कारण जो भी हो, यह फैसला पहले ही हो जाना चाहिए था, क्योंकि यह वक्त की जरूरत है। ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर लिंग, जाति, धर्म वगैरह को लेकर जिस तरह की पाबंदियां हैं, उन्हें परंपरा और शास्त्र-सम्मत बताया जाता है, लेकिन अगर इतिहास और परंपरा को ध्यान से परखा जाए, तो ऐसा नहीं है। यह देखा गया है कि अक्सर शुरू में धार्मिक स्थलों पर सबको जाने की आजादी होती है और रीति-रिवाज कर्मकांड भी कम होते हैं।
धीरे-धीरे कर्मकांड ज्यादा विस्तृत होने लगते हैं और उसके साथ तरह-तरह के निषेध भी बढ़ते चले जाते हैं, जिनमें लिंग और जाति वगैरह के आधार पर भेदभाव भी शामिल है। शास्त्रों में भी ऐसे निर्देश कहीं नहीं मिलते, इसलिए ऐसी प्रथाएं हर धर्मस्थल पर अलग-अलग होती हैं। ये स्थानीय सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक वजहों से बनती हैं। सभी धर्मों में इस बात के उदाहरण मिलते हैं कि शुरू में महिलाओं को जो आजादियां थीं, वे धीरे-धीरे कम हो गईं, इसलिए महिलाओं को फिर से आजादी देना कई मायनों में धर्म के मूल स्वरूप और मूल्यों की ओर लौटना है। ऐसा न हो, तो भी नए जमाने के नए मूल्यों के मुताबिक बदलना बुरा नहीं है। यह धर्म की प्रासंगिकता को और बढ़ाता है।
शनि शिंगणापुर मंदिर या मुंबई की हाजी अली दरगाह के प्रबंधकों को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस मामले में उन्हें विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है। किसी वक्त में दलितों के मंदिर-प्रवेश को लेकर आंदोलन चला था, क्योंकि वह वक्त की मांग थी। वैसे ही आज नहीं तो कल, धर्म के नाम पर स्त्री-पुरुष भेदभाव के खिलाफ आवाज तो उठती ही। यह एक संयोग माना जाना चाहिए कि शनि शिंगणापुर मंदिर उसका प्रतीक बन गया। इस मायने में शनि शिंगणापुर मंदिर से जुड़े लोगों को खुश होना चाहिए कि वे एक अच्छी शुरुआत कर रहे हैं।
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