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विजेता की थकान

आधुनिक जीवन की भागदौड़ से तनाव, टूटन या 'एक्जॉसन' और 'बर्न आउट' की चर्चा हम आए दिन सुनते रहते हैं। तेजी से सफलता की सीढि़यां चढ़ता हुआ कोई व्यक्ति किसी दिन अचानक या धीरे-धीरे हांफकर...

विजेता की थकान
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 24 Jul 2016 09:45 PM
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आधुनिक जीवन की भागदौड़ से तनाव, टूटन या 'एक्जॉसन' और 'बर्न आउट' की चर्चा हम आए दिन सुनते रहते हैं। तेजी से सफलता की सीढि़यां चढ़ता हुआ कोई व्यक्ति किसी दिन अचानक या धीरे-धीरे हांफकर वहीं बैठ जाता है, उसकी ऊर्जा, उसका आत्मविश्वास, उसकी महत्वाकांक्षा, उसकी जूझने की क्षमता, उसकी आक्रामकता, यानी वे सभी गुण, जो सफलता के नुस्खे सिखाने वाली तमाम किताबों में लिखे रहते हैं और हर सफल या सफलता की कामना करने वाला व्यक्ति उन्हें अपने अंदर संजोता रहता है, वे सारे गुण उसका साथ छोड़ जाते हैं।

यह वैसे ही है, जैसे किसी मशीन का इंजन इतना चले कि गरम होकर ओवरहीटिंग से जवाब दे जाए। ये किस्से इन दिनों बहुत प्रचलित हैं, लेकिन इसके बारे में लोग जानते बहुत कम हैं। मसलन, यह सिर्फ आधुनिक जीवन की ही बीमारी है। क्या पुराने जमाने में लोगों को ऐसा नहीं होता होगा?

हिंदी साहित्य में आजादी के आसपास आधुनिकता से उपजे संत्रास की चर्चा हुई, फिर वह पूंजीवाद के अलगाव तक पहुंचा, इन दिनों भूमंडलीकरण के अमानवीयकरण की बात हो रही है। लेकिन अगर याद किया जाए, तो 19वीं सदी के पश्चिमी साहित्य में भी ऐसे 'एक्जॉसन' की चर्चा बहुत होती है। उस वक्त माना जाता था कि यह स्नायु तंत्र की कमजोरी का नतीजा है, बल्कि 'टॉनिक' आम तौर पर उन्हीं दवाओं को कहा जाता था, जिनसे कथित तौर पर स्नायु तंत्र मजबूत होता है। होमियोपैथी की किताबों में बहुत से दवाओं के लक्षणों में ऐसे लक्षणों का वर्णन किया गया है, जिन्हें हम 'बर्न आउट' के लक्षण कह सकते हैं। एक गंभीर अध्येता और चिकित्सा-शास्त्र के इतिहास पर काम करने वाली लेखिका अन्ना कैथरीना शॉफनर का कहना है कि ईसा पूर्व काल के यूनानी चिकित्सक गैलन ने इस तरह की स्वास्थ्य समस्या का जिक्र किया है और बाद के साहित्य में भी इसका जिक्र मिलता है। भारतीय प्राचीन साहित्य में भी इस तरह के लक्षणों का वर्णन मिल सकता है।

इसके बावजूद यह कहा जा सकता है कि हमारे दौर में यह समस्या ज्यादा विकट है। जर्मन डॉक्टरों के बारे में एक अध्ययन से पता चला कि लगभग 50 प्रतिशत डॉक्टर बर्न आउट के शिकार हैं। भारत में भी कई पेशेवर लोगों के बारे में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि ज्यादा तनाव व व्यस्तता वाले कई पेशों में बड़ी संख्या में लोग ऐसी समस्याओं से ग्रस्त हैं। कुछ जानकार मानते हैं कि मनुष्य का शरीर व मन उस रफ्तार के लिए नहीं बना है, जो इस दौर की है। कठिन प्रतिस्पर्द्धा ने इंसान को अपने पेशे में लगातार ऐसी स्थिति में रहने को मजबूर कर दिया है, जिसमें लगातार बने रहना कठिन है। यह ऐसा ही है, जैसे किसी मैराथन धावक को लगातार 100 मीटर की दौड़ वाली गति से दौड़ने पर मजबूर कर दिया जाए।

तमाम तकनीकी साधनों ने 24 घंटों में किसी भी वक्त सुस्ताने के मौके खत्म कर दिए हैं। पर 'एक्जॉसन' व 'डिप्रेशन' यानी अवसाद अलग-अलग समस्याएं हैं। एक लेखक के मुताबिक, अवसाद 'लूजर्स' की बीमारी है,'एक्जॉसन' विजेताओं या पूर्व विजेताओं की समस्या। 'एक्जॉसन' बताता है कि जिंदगी की दौड़ किसी को नहीं बख्शती, न हारने वाले को, न जीतने वाले को इसलिए इसका इलाज भी दौड़ की वास्तविकता समझने में है। लगातार विजेता बने रहने, अपने आप को खुद की और दूसरों की नजर में साबित करने की कोशिश आदमी को तोड़ सकती है। आदमी अपने दौर से बाहर नहीं हो सकता, न ही इस दौड़ से निकल सकता है, लेकिन यथासंभव सफलता से ज्यादा सार्थकता की तलाश इंसान को बचाए रख सकती है।

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