फोटो गैलरी

Hindi Newsसुकमा के सबक

सुकमा के सबक

छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सली हमले ने पूरे देश को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया है। डेढ़ महीने के भीतर जवानों पर यह दूसरा हमला है और इन दोनों में 40 जवान शहीद हुए हैं। छत्तीसगढ़ में...

सुकमा के सबक
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 25 Apr 2017 11:16 PM
ऐप पर पढ़ें

छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ जवानों पर नक्सली हमले ने पूरे देश को एक बार फिर झकझोर कर रख दिया है। डेढ़ महीने के भीतर जवानों पर यह दूसरा हमला है और इन दोनों में 40 जवान शहीद हुए हैं। छत्तीसगढ़ में 2010 के बाद का यह सबसे बड़ा नक्सली हमला है। उस हमले में 76 जवान शहीद हुए थे। नक्सली कमजोर हो चुके हैं, के राजनीतिक शोर के बीच इस हमले ने हमारे धैर्य को चुनौती दी है। यह एहसास भी ठीक से कराया है कि अब तक की रणनीति कहीं न कहीं विफल साबित हुई है और इसकी नए सिरे से समीक्षा करने का वक्त है। कोरी बयानबाजी और भुजाएं फड़काने से आगे जाकर कुछ ठोस करने का वक्त है। 

सुकमा ने कुछ बुनियादी सवाल भी उठाए हैं। सबसे बड़ा सवाल तो रणनीतिक चूक का ही है। इसने एहसास कराया है कि समस्या इतनी आसान नहीं कि चुटकी बजाकर, फोर्स लगाकर सुलझा ली जाए। नहीं भूलना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में 14 साल से भाजपा की सरकार है और केंद्र में भी उसकी सरकार के तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। किसी भी समस्या की जड़ में जाने, उसके खात्मे के लिए इतना वक्त कम नहीं होता। ऐसे में, यह भारी भरकम शब्दों से निंदा की बजाय जवाबदेही और जिम्मेदारी लेने का वक्त भी है। इसने उस सच को भी खोला है, जो बताता है कि नोटबंदी जैसे उपाय नक्सलियों, आतंकियों, उग्रवादियों, नकली नोट के काला बाजारियों पर कारगर नहीं हुआ करते। बल्कि ताजा घटना तो यह भी बताती है कि ये पहले की अपेक्षा और मजबूत हुए हैं और सटीक जमीनी रणनीति ही इनकी कमर तोड़ सकती है। ऐसे में, सोचना होगा कि लगातार तीन कार्यकाल वाली राज्य सरकार इस समस्या का तोड़ आखिर क्यों नहीं निकाल पाई? अब दोषारोपण करने और बचने-बचाने की राजनीति से आगे जाकर गंभीरता से सोचने और विफलता के कारणों को तलाशने की जरूरत है। 

सुकमा सुरक्षा बलों से ज्यादा खुफिया तंत्र की विफलता का मामला भी है। बड़ी लड़ाइयां लड़ने और जीतने के लिए दुश्मन की सोच पर चोट करनी होती है, उसके हथियार-हथकंडे, बोली-भाषा, चाल-चलन तक समझने पड़ते हैं। सेना और केंद्रीय बल लड़ने-दुश्मन के ठिकाने नष्ट करने के लिए होते हैं, लेकिन यह भी सच है कि ऐसे मोर्चों पर सफलता स्थानीय भागीदारी के बिना संभव नहीं होती। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड या तेलंगाना तक नक्सलियों के मामले में यह चूक बार-बार हुई है। गहरे अतीत में न जाकर चंदन तस्कर वीरप्पन के खात्मे की कहानी पर हमें गौर कर लेना चाहिए। वीरप्पन और उसकी सेना के खात्मे की कोई सोच भी नहीं सकता था, लेकिन रणनीति ने सब सफल कर दिया। जाहिर है, योजना के फलीभूत होने में चार-पांच साल का वक्त लगा, लेकिन इस दौर में हुआ यह कि कब हमारे जवान ‘उसकी सेना’ में घुसपैठ कर गए या कब उन जंगलों की दुनिया हमारे जवानों की उंगली पर खेलने लगी, यह वीरप्पन जैसे शातिर भी न समझ पाए। सुकमा को भी ऐसी ही रणनीति की जरूरत है। ऐसी रणनीति, जिसके सहारे हम उनके उठने-बैठने से लेकर खाने-पीने तक पर नजर रख सकें, उनकी कूटभाषाएं समझ सकें। जाहिर है, यह सब स्थानीय पुलिस और जन भागीदारी से ही संभव होगा। क्योंकि जब आधिकारिक आंकड़े ही बता रहे हों कि नक्सली 300 से ज्यादा संख्या में और घातक हथियारों से लैस थे, तो यह मान लेना चाहिए कि तमाम दावों के बावजूद हम न तो उनके हथियारों की खेप रोक पाए, और न ही उनसे जुड़ने वाली नई जमात को रोक पाए। हम उन्हें नहीं समझे, वे हमारी हर गतिविधि को समझते रहे। हमारे लिए यह असली चिंता का विषय होना चाहिए। 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें