थोथी बधाइयों का नया दौर
मौका मिलते ही एक-दूसरे को बधाई देने में हमारी बराबरी नहीं। कौन कहे, हम इसमें दुनिया में अग्रणी हों? चीन आबादी में हमसे आगे है, पर क्या पता, वहां पर पारस्परिक बधाई की अनुमति है भी या नहीं? अपनी...
मौका मिलते ही एक-दूसरे को बधाई देने में हमारी बराबरी नहीं। कौन कहे, हम इसमें दुनिया में अग्रणी हों? चीन आबादी में हमसे आगे है, पर क्या पता, वहां पर पारस्परिक बधाई की अनुमति है भी या नहीं? अपनी बधाई-श्रेष्ठता के कई कारण हैं। यह पूरी तरह फ्री है। जुबान बुराई में न हिलाई, बधाई में हिला ली। मुल्क में बधाई के राष्ट्रीय और स्थानीय अवसरों जैसे होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, जन्मदिन आदि की इफरात है। कुछ इस पुण्य कर्म को फोन से संपन्न करते हैं, तो कुछ खुद उपस्थित होकर। जाने से मिष्ठान गटकने और मधुमेह का शिकार होने जैसी वांछित-अवांछित संभावनाओं में वृद्धि स्वाभाविक है।
धर्मनिरपेक्ष सरकार का इकलौता सेक्युलर त्योहार नववर्ष है। इसमें कर्मचारी 31 दिसंबर से जनवरी के शुरुआती दो हफ्तों तक अपने पूरे साल काम न करने के नेक निश्चय का शुभारंभ करते हैं। कई बार संपर्क के अभाव से चिंतित पत्नियां दफ्तर तक आ धमकती हैं।
ऐसा बहुधा उन्हीं कार्यालयों में होता है, जो बाजार के पास हैं। जरूरी नहीं कि पत्नियां पति-प्रेम से प्रेरित हों। कई बार पुरुष मित्र से मिलन या सैर-सपाटे की हसरत भी इसके लिए जिम्मेदार है। कुछ भाग्यशाली ऐसे भी हैं, जिनकी गाड़ी सरकारी है। वे घूम-घूमकर दूर-करीब के अपने सहयोगियों व वरिष्ठों को शुभकामनाओं की मौखिक मिठाई बांटते हैं। कुछ का लक्ष्य अपना उल्लू सीधा करना होता है, तो कुछ मुंह में राम, बगल में छुरी के हुनर से लैस होते हैं। ऐसी थोथी सरकारी बधाई का मोहक मोड़ सिर्फ नववर्ष के प्रारंभ में खत्म नहीं होता।
पूरे वर्ष यह कार्यक्षमता को धता बताता है। हर धर्म के उत्सवों के प्रति जागरूक सरकार खुशी का इजहार छुट्टियों से करती है। जैसे उसकी कार्यकुशलता का मानक त्योहार मनाना है। सब जानते हैं कि बजते ढोल में पोल है। तबले से लेकर ढोलक व डमरू तक खाली न हों, तो वे बजें कैसे? कभी-कभी मन में शंका होती है। बधाई के अतिरेक का सच यह तो नहीं है कि जिसका मन, जिसके कल्याण के लिए जितना रीता है, उसकी आवाज उतनी शुभकामनाएं दोहराती है?