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मौन से बेहतर तो उनका शोर है

महानगर के शोर से अपना कान ही नहीं, मन भी पक गया है। बोलते-बोलते हम खुद ही चीखने लगे हैं। बस छुट्टी के दिन अपेक्षाकृत कुछ शांति है। उम्मीद से ज्यादा आबादी, सड़कों पर हर किस्म के वाहन, यहां तक कि पैदल...

मौन से बेहतर तो उनका शोर है
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 09 Aug 2016 03:25 PM
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महानगर के शोर से अपना कान ही नहीं, मन भी पक गया है। बोलते-बोलते हम खुद ही चीखने लगे हैं। बस छुट्टी के दिन अपेक्षाकृत कुछ शांति है। उम्मीद से ज्यादा आबादी, सड़कों पर हर किस्म के वाहन, यहां तक कि पैदल पथ पर स्कूटरों का आवागमन। वाहनों की भीड़ है, तो रुकावट है। रुकावट है, तो क्रोध है। क्रोध है, तो शोर है। हम अलसाए उठे हैं कि पप्पू हमें प्रश्न का हथौड़ा दे मारते हैं, ‘पापा, चिड़िया चिंचियाती हैं, मेंढक टर्राते और शेर दहाड़ते हैं। दादी बताती हैं कि सबमें प्राण है, तो पेड़ क्यों चुप हैं?’ हमने एक पल हाथी-से चिंघाड़ते वृक्षों की कल्पना की। फिर पप्पू से यह कहकर जान छुड़ाई कि पेड़ों की अपनी बोली है। वे हवा में सरसराते हैं।

अचानक एहसास हुआ कि चुप्पी खतरनाक है। आतंकी साजिशें ढोल बजाकर नहीं, चुपचाप रची जाती हैं। मिलावट का मीना बाजार मौन होकर चालू है। संस्था और सरकार में घूस की सौदेबाजी खामोशी से सक्रिय है। नई चमचमाती सड़कों पर कमीशन के गड्ढे ही गड्ढे हैं। गड्ढे हैं, तो दुर्घटना है। दुर्घटना है, तो शिकायत है। शिकायत है, तो जांच है। फिर लंबी चुप्पी। खुसफुसाहट है कि वहां भी जुबान पर धन का नियंत्रण है। जाने लोग कैसे कहते हैं कि पैसा बोलता है? हमें तो लगता है कि पैसा सुर्खियों में छाती आवाजों पर ताला जड़ने का साधन है।

ठेकेदार इंजीनियर की जेब के साथ गड्ढे भरने की कवायद में जुटा है। सबसे कम रेट और सबसे ज्यादा कमीशन की प्रसिद्धि उसने इसी मेहनत से कमाई है। ‘सबका साथ और सबका विकास’ उसने दृढ़ निश्चय और लगन से किया है। फिर पुल और इमारतें पतझर के पत्तों-सी टपक रही हैं, तो टपकें। सरकारें भी जानती हैं कि इस देश में विकास के असली वाहक ठेकेदार और बिचौलिये हैं। हम सोचते हैं कि यदि शोर नहीं होता, तो कवि कैसे सन्नाटे का छंद बुनता? इस गुपचुप लेन-देन के जमाने में तरक्की का तराना कभी गूंज पाएगा क्या? अब हम दफ्तर जा रहे हैं, तो शोर हमें सुहा रहा है। ऐसा तो नहीं कि शोर जीवंत सदाचार है और मौन छिपा करप्शन। मगर यह निर्णय कौन हमारे ऊपर निर्भर है?

 

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