जंग का उन्माद
कुछ दिनों पहले मैंने लिखा था कि लड़ाई से ज्यादा खतरनाक उसका उन्माद होता है। इसके पीछे था 1971 की लड़ाई के बाद का एक अनुभव। उस समय मैं छह साल का था। पिता वायु सेना में थे और हम एयरफोर्स स्टेशन हिंडन,...
कुछ दिनों पहले मैंने लिखा था कि लड़ाई से ज्यादा खतरनाक उसका उन्माद होता है। इसके पीछे था 1971 की लड़ाई के बाद का एक अनुभव। उस समय मैं छह साल का था। पिता वायु सेना में थे और हम एयरफोर्स स्टेशन हिंडन, गाजियाबाद में रहा करते थे। लड़ाई खत्म हो चुकी थी, और हर रोज सुबह एक फौजी ट्रक आता था। महिलाएं अपने बच्चों के साथ वहां पहले से ही इंतजार कर रही होती थीं। उनमें मेरी मां भी होती थीं। ट्रक से लड़ाई पर गए फौजी उतरते थे। जिस महिला का पति उतरता था, उसकी पत्नी की खुशी के मारे रुलाई फूट पड़ती थी। बच्चे दौड़कर पिता से लिपट जाते थे। ट्रक खाली हो जाता था, फौजी अपने परिवार वालों के साथ घर चले जाते थे, लेकिन वहां कुछ औरतें फिर भी खड़ी मिलती थीं, अपने बच्चों के हाथ थामे। ये वे औरतें थीं, जिनके पति उस दिन लड़ाई से नहीं लौटे होते थे। बहुत ही थके कदमों से ये महिलाएं अपने घर लौटती थीं। उनकी भी रुलाई फूटती थी। और अगले दिन फिर उन महिलाओं को अपने बच्चों के साथ ट्रक का इंतजार करते देखा जाता था।
वह मंजर मैं भूल नहीं पाता, जब भी कोई लड़ाई की बात करता है। इस समय भी बहुत सी पत्नियां पति के घर लौट आने का इंतजार कर रही हैं, जो सीमा पर चौकसी दे रहे हैं। बहुत सारे बच्चे उसी तरह इंतजार कर रहे हैं, जैसा मैंने 1971 में किया था। ऐसे परिवारों से पूछिए, लड़ाई का उन्माद कैसे तोड़कर रख देता है उनको!
विजय विद्रोही की फेसबुक वॉल से