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नारी न्यायमूर्ति

सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति पर मची गहमागहमी के बीच राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के इस विनम्र सुझाव के काफी मायने हैं कि वहां कम से कम एक महिला जज की नियुक्ति तो होनी चाहिए। न्यायपालिका में कानून...

नारी न्यायमूर्ति
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 27 Dec 2009 10:50 PM
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सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति पर मची गहमागहमी के बीच राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के इस विनम्र सुझाव के काफी मायने हैं कि वहां कम से कम एक महिला जज की नियुक्ति तो होनी चाहिए। न्यायपालिका में कानून की तकनीकी और दार्शनिक समझ ही नहीं सभी तरह की संवेदनशीलता चाहिए, क्योंकि विधायिका तो महज कानून का कंकाल खड़ा करती है, उसमें रक्त, मांस और मज्जा भरने का काम न्यायपालिका ही करती है। इसीलिए न्याय को सजीव बनाए रखने के लिए उसके सभी अंगों में स्पंदन होते रहना चाहिए। उसके भीतर एक पुरुष ही नहीं स्त्री का हृदय और मानस व उसकी संवेदनशीलता भी होनी जरूरी है। जाहिर है यहां संवेदनशीलता का अर्थ किसी तरह का पूर्वाग्रह से नहीं बल्कि न्यायिक विवेक की संपूर्णता और संतुलन से है। यही वह संतुलन है जो समाज और राज्य की अन्य संस्थाओं में व्याप्त पूर्वाग्रह को मिटाता है। संयोग देखिए राष्ट्रपति का यह सुझाव उस समय आया है जब देश का मीडिया रुचिका नाम की एक नाबालिग लड़की से हुए व्यवस्था के घोर अन्याय से आंदोलित है। अन्याय के इस अहसास को सुप्रीम कोर्ट के नाकाफी न्याय ने और बढ़ा दिया है।
 
इस दौरान यह सुझाव भी आ रहे हैं कि हमारे कानूनी ढांचे में ही नहीं उसे लागू करने और उसकी व्याख्या करने में पुरुषवादी मानसिकता अपना प्रभाव छोड़ती है। इसीलिए महिला संबंधी अपराधों में या तो समुचित न्याय हो नहीं पाता या फिर उसके लिए मीडिया को पूरा अभियान चलाना पड़ता है। यह दोनों स्थितियां न्यायपालिका की निष्पक्षता को धुंध की तरह घेर लेती हैं। इसीलिए कई टीकाकार यह कहने से भी नहीं चूकते कि हमारे स्त्री संबंधी कानून अभी भी पुरुषों के कब्जे में हैं। हालांकि राष्ट्रपति ने यह सुझाव सुप्रीम कोर्ट के लिए दिया है जहां न्यायमूर्ति रूमा पाल के रिटायर होने के बाद पिछले तीन साल से कोई महिला जज नहीं है। उससे भी कम चौंकाने वाली बात यह नहीं है कि हमारे सर्वोच्च न्यायालय के इतिहास में अब तक तीन ही महिला जज हुई हैं। इनमें पहली फातिमा बीवी, दूसरी सुजाता वी. मनोहर और तीसरी रूमा पाल थीं। जाहिर है इसके ऐतिहासिक कारण भी रहे होंगे, जिनमें महिलाओं का पिछड़ापन और कानून के व्यवसाय और अध्ययन के प्रति उनकी देर से जगी रुचि की अपनी भूमिका हो सकती है। पर जब हमारे सर्वोच्च संवैधानिक पद पर विराजमान एक स्त्री की तरफ से यह सुझाव आया है तो जाहिर है कि इन कमियों को पूरा करने का एक नैतिक दबाव बनेगा।

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