असल मुद्दा है गरीबी खत्म करने का
तेलंगाना के बहाने राज्यों के पुनर्गठन का सवाल एक बार फिर केंद्र में आ गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वक्त की नजाकत को समझते हुए ढुलमुल जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि इस मसले पर ठंडे दिल से...
तेलंगाना के बहाने राज्यों के पुनर्गठन का सवाल एक बार फिर केंद्र में आ गया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वक्त की नजाकत को समझते हुए ढुलमुल जवाब दिया है। उन्होंने कहा है कि इस मसले पर ठंडे दिल से विचार किया जाएगा। प्रधानमंत्री के कथन के पहले और उसके बाद राज्यों के गठन-पुनर्गठन को लेकर माहौल गर्म हो गया। इसके बाद जहां उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने प्रदेश में चार राज्य बनाने की तो उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि झारखंड को वापस बिहार में शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने नए सिरे से राज्यों के पुनर्गठन की वकालत की।
उत्तर प्रदेश और बिहार में मिथिलांचल राज्य और पूर्वांचल राज्य की मांग लंबे समय से चल रही है। आंदोलन चलाने वाले जन समुदाय ने नवगठित राज्यों के नक्शे तैयार करा लिये हैं। इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने सात सरकारों की बात की है तो स्वभाविक तौर पर बनारस पूर्वांचल का हिस्सा होगा। केंद्रीय मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल एक अलग जुमला जोड़ गए कि पूर्वी उत्तर प्रदेश से जुड़ने वाले बिहार के जिलों को मिलाया जा सकता है। किसिम-किसिम के बयान आने लगे।
अभी कुछ वर्ष पहले ही बिहार से झारखंड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड अलग किए गए थे। और एक दशक के अंदर ही तेलंगाना की लड़ाई ने छोटे राज्यों के गठन पर गंभीरता से विचार-विमर्श करने का रास्ता खोल दिया है। क्या वास्तव में छोटे राज्य विकास के लिए जरूरी हैं? क्या देश के छोटे राज्यों का विकास हुआ है? असम का उदाहरण सामने है। उत्तरपूर्व की समस्याएं क्या असम के बनने से खत्म हो गयीं, नहीं।
एक जमाने में बंगाल प्रेसीडेंसी हुआ करती थी जिसमें बंगाल भी था बिहार भी था और असम भी था। जिससे बिहार 1911 में अलग हो गया। हम बिहार पर ही गौर फरमाएं। बिहार तब बना जब दिल्ली भारत की राजधानी बनी। बिहार से उड़ीसा 1936 में अलग किया गया और 2000 में बिहार से झारखंड निकला। 1912 से 2001 तक बताने की जरूरत नहीं कि विकास के मानचित्र पर बिहार कहां खड़ा है? जन था, धन था, खदान थे और खलिहान था फिर भी बिहार उपनिवेश बना रहा। बिहार के साथ छत्तीसगढ़, झारखंड, बंगाल के साथ पूरे हिंदी पट्टी की क्या हालत है? विभाजन के बाद उत्तराखंड की हालत इसलिए बेहतर है कि उसे आपने विशेष श्रेणी के राज्यों में डाल दिया है।
अंग्रेजी राज के जमाने का प्रचलित जुमला-बांटो और राज करो की नीति पर राज्य बनाने वाली केंद्रीय सरकारें चलती रही हैं। वह कांग्रेसी सरकार हो या भाजपा की सरकार। और राज्यों के गठन के लिए चलने वाले साठ के दशक के आंदोलनों के बारे में कहें तो वह चाहे मद्रास से आंध्र को अलग करने का आंदोलन हो, या महाराष्ट्र को अलग करने का आंदोलन अथवा पंजाब से हरियाणा को अलग करने का मास्टर तारा सिंह का आंदोलन हो इसमें स्थानीय लोगों के अपने जज्बात थे और भावनाएं थीं। लेकिन अलग होने के बाद क्या उन राज्यों का विकास हुआ?
दोनों तरह के उदाहरण हमारे सामने हैं, हरियाणा विकसित हुआ तो झारखंड में चार हजार करोड रुपये का घोटाला हो गया। तमाम खान खदानों के बावजूद झारखंड बिहार की तरह भारत का विकसित राज्य नहीं है। आज के तेलंगाना की तरह कभी पंजाब अलग राज्य की मांग पर डा़ लोहिया ने लिखा था कि पंजाबी सूबे की मांग के लिए और उसके विरुद्ध जो उपवास किए जा रहे हैं, उनके बारे में मेरी राय है कि उपवास एक बहुत ही अनुचित राजनैतिक हथियार है।
आप किसी राज्य के पक्ष और विरोध में हो सकते हैं ,लेकिन यह सवाल जरूरी है कि इससे क्या उस राज्य का कुछ भला हो रहा है या शुद्ध राजनीति ही हो रही है। चंद्र बाबू नायडू के विरोध और समर्थन के बीच वोट की राजनीति है। वे टीआरएस से तालमेल कर सफल हो गए और आंध्र की जनता के दबाब के आगे कठिनाई महसूस कर रहे हैं। कांग्रेस की दिक्कत है कि उसका दृष्टिकोण साफ नहीं है और अगले साल चुनाव होने हैं। ऐसे में कांग्रेस फंस गई है। कुछ लोग कह सकते हैं कि वह तुष्टीकरण की नीति पर चल रही है। उसके साथ दिक्कत यह है कि वह देश की सबसे बड़ी राज करने वाली पार्टी है और अब जोड़-तोड़ की राजनीति तक सीमित होती जा रही है। उसकी नीति क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर जोड़- तोड़ और तालमेल कर राज करने की राजनीति है। झारखंड और तेलंगाना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
राज्यों को लेकर असली सवाल यह है कि सरकार की जैसी आर्थिक नीतियां होती हैं, उसकी छाप भी राजनीति पर दिखाई पड़ती है। आप उससे अलग नहीं हो सकते। आधुनिक भारत की आर्थिक नीतियां देश को गिरवी रखने वाली नीतियां हैं, जिसमें गरीबों और गरीब राज्यों का नारा जरूर हो सकता है, उनका कोई माई-बाप नहीं होगा। एक जमाने में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन हुआ। बाद के दौर में इस चिंतन में बदलाव आया - पिछड़े क्षेत्र के लोगों को लगने लगा कि उनका अपना राज्य बन जाएगा तो विकास हो जाएगा। यह काल्पनिक धारणा है। देश में कुछ बड़े राज्य भी विकसित हुए हैं उनमें गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब आदि हैं। गरीब व पिछड़े राज्यों के विकास के लिए राजनीति करने की जरूरत नहीं है, ऐसे गंभीर मसलों पर सचमुच गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
बेहतर तो यह होता कि राज्यों के बंटवारे का ठोस आधार क्या होगा इसको तय करने के लिए भारत सरकार सभी दलों को बुलाती और बैठाती। क्षेत्रीय दलों को भी साथ लेकर बहस करती और इस विषय पर एक राष्ट्रीय सर्वानुमति विकसित करती जिसके आधार पर वह नया राज्य पुनर्गठन आयोग बनाकर फिर वह तय करती। हम एक ऐसे मुल्क में रह रहे हैं जहां आधुनिकता के कुछ नये द्वीप उभर रहे हैं।
भारत के बहुसंख्यक जिले और कस्बे अविकसित है और गरीबी की मार झेल रहे हैं। उदारीकरण के बाद का यह भारतीय राष्ट्रीय स्वरूप है। गरीब लोग और गरीब राज्य हाशिये पर जाने को विवश हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि केन्द्र सरकार नये राज्यों के गठन के साथ राज्य गरीब क्यों रह गये, वंचितों की तादात क्यों बढ रही है इस पर गंभीरता से विचार करे अन्यथा पांच दस राज्य बनाने से ना इस देश का भला होगा ना गरीबों का।
लेखक राज्यसभा के सदस्य व जदयू के राष्ट्रीय महासचिव हैं