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नए राज्यों से जरूरी है नई राजनीति

भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा। हमारे संविधान के पहले अनुच्छेद में देश के नाम के साथ यह भी बताया गया कि यह राज्यों का संघ है। देश आज़ाद होने के काफी पहले हमने संघीय व्यवस्था अपना ली थी। संघीय...

नए राज्यों से जरूरी है नई राजनीति
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 20 Dec 2009 10:30 PM
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भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा। हमारे संविधान के पहले अनुच्छेद में देश के नाम के साथ यह भी बताया गया कि यह राज्यों का संघ है। देश आज़ाद होने के काफी पहले हमने संघीय व्यवस्था अपना ली थी। संघीय व्यवस्था न होती, तब भी कोई व्यवस्था होती। पर हमने संघीय व्यवस्था को संवैधानिक घोषणा के साथ अपनाया है। एक राज व्यवस्था में अनेकता और एकता का सामंजस्य बैठाना संघवाद (फेडरलिज्म) का मूल उद्देश्य है। दुनिया के 190 से ज्यादा देशों में से 24 या 25 ने ही संघवाद को इस तरह स्वीकार किया है। विविधताओं का समन्वय और पीछे रह गए लोगों की भी फिक्र करना यानी समावेशी विकास (इन्क्ल्यूसिव ग्रोथ) इसकी मूल भावना है।

भारत एक खुशबू है, जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैली है। यह खुशबू कई तरह के फूलों से निकली है। फूल और खुशबू के साथ काँटे भी हैं। हम कई तरह की भाषाएं बोलते हैं। कई तरह के पहनावे हैं। कई तरह कीभौगोलिक परिस्थितियों में रहते हैं। बड़ी व्यापक है हमारी अनेकता। दुनिया की सबसे बड़ी जैव विविधता भारत में है। सैकड़ों साल तक हम कभी इस राज में रहे, कभी उसमें। पर 15 अगस्त 1947 को हमने एक नए भारतवर्ष को ईज़ाद किया। अब हर चीज़ को एक लिखित संवैधानिक व्यवस्था के तहत परिभाषित किया गया है। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब हम इस विविधता के अंतर्विरोधों से रूबरू न होते हों।

संविधान के दूसरे अनुच्छेद में कहा गया है कि संसद, संघ में नए राज्यों का प्रवेश या उनकी स्थापना करेगी। संघीय व्यवस्था का यह सबसे बड़ा पेच है। अमेरिकी संघ बना था, एक गृहयुद्ध के बाद। वहाँ के राज्यों ने संघ बनाया। हमने पहले संघ बनाया, फिर तय कर रहे हैं कि कौन राज्य होगा, और क्यों होगा। राजनीति की तरह राज्यों की माँग हमारे अंतर्विरोधों को उजागर करती है। साथ ही ढोंग और पाखंड के किस्से भी। राज्य छोटे होंगे या बड़े, विकासोन्मुखी होंगे या सिर्फ आवेशों को भड़काने वाले यह सब राजनीति पर निर्भर करता है। तेलंगाना इसका बेहतर उदाहरण है।

राज्यों के गठन की बहस आज़ादी के बाद तेलंगाना की माँग के साथ ही शुरू हुई थी। पोट्टी श्रीरामुलु की मौत के बाद जैसे ही फसाद शुरू हुए, सरकार ने तेलुगु प्रदेश की घोषणा कर दी। साथ ही राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया। पर तेलंगाना के मामले में आयोग की सलाह नहीं माना। आयोग ने अपनी रपट में साफ कहा कि हैदराबाद राज्य नाम से तेलंगाना बना दिया जाय। इस राज्य को दो तिहाई बहुमत से बड़ा आंध्र बनाना मंज़ूर हो तो ठीक, वर्ना उतना ही बना रहे। इस सिफारिश को सरकार ने नहीं माना और अपना मर्ज़ी से आंध्र बना दिया। 1969 में फिर आंदोलन हुआ, तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाकर और नेतृत्व के कुछ समझौते करके काम चलाया गया।

2004 में जब केन्द्र में यूपीए सरकार बन रही थी, तब यह जानते हुए कि तेलंगाना राष्ट्र समिति की माँग ही एक है, उसे सरकार में शामिल किया गया। जब ऐसा नहीं हो पाया तब वह अलग हो गई। देश में अलग राज्य बनाने की जितनी भी माँगें हैं, उन सबके पीछे दिखाने के तर्क अलग हैं और असली मंशा अलग है। दिखाने को  सबके पास विकास का मॉडल है। छोटे राज्य का विकास करना आसान है। जनता और सरकार की दूरी कम होगी। राजधानी पास होगी। फैसले करने वाले समस्या और समाधान से अच्छी तरह परिचित होंगे वगैरह। व्यावहारिक सच यह है कि विधायकों के पद बढ़ेंगे। आयोग बढ़ेंगे। लाल बत्तियाँ बढ़ेगी। कुर्सियाँ बढ़ेगी। खाने-पीने के मौके बढ़ेगे। बेशक राजनैतिक चेतना बढ़ेगी, जनता की भागीदारी बढ़ेगी। पर उसकी चिन्ता किसे है? कौन चाहता है कि जनता जागरूक हो? झारखंड के चुनाव चल रहे हैं। एक संगठन ने पूर्व विधायकों के हलफनामों की पड़तात की तो पता लगा कि इस दौरान 37 विधायकों की सम्पत्ति में तीन हजार चार सौ चौवन प्रतिशत की वृद्धि हुई। एक विधायक की सम्पदा एक लाख बारह हजार एक सौ इक्कीस प्रतिशत बढ़ गई। यह चमत्कार क्या छोटे राज्य बनने से हुआ है? क्या हम ऐसा चमत्कार ही चाहते हैं?

उत्तर प्रदेश के तीन या चार टुकड़े करने की माँग है। मध्य प्रदेश में विंध्याचल, महाराष्ट्र में विदर्भ, कर्नाटक में कोडगु, बंगाल में गोरखालैंड, असम में बोडोलैंड जैसी दजर्न से ज्यादा माँगें सामने हैं। जम्मू-कश्मीर के तीन हिस्से करने की मुहिम भी ज़ोर पकड़ रही है। हर माँग जायज़ है। पर राजनैतिक आधार ढाँचे को तैयार करने की भी एक कीमत होती है। यह काम आर्थिक विकास के सापेक्ष है। बेहतर हो कि हम इन सब माँगों को नए परिप्रेक्ष्य में देखें और नए सिरे से सोचें। इस बात में कोई बुराई नहीं कि हम एक नया आयोग बनाएं, जो राष्ट्रीय पुनर्गठन और एकीकरण के तमाम मसलों पर विचार करे और दीर्घकालीन योजना दे। सबसे बड़ी बात है विकास। उसका रास्ता क्या हो, इसके बारे में सोचें। फिर पंचायती राज को बेहतर हनाने की कोशिश करें. वह तो जनता के सबसे करीब होता है। सच यह है कि प्रदेश सरकारें स्थानीय निकायों को अपनी जेब में रखना चाहती हैं।
देखना चाहिए कि नए राज्यों के बनने से क्या मिला। उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड के परिणाम सामने हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की रपट और कुछ अन्य तथ्यों को जोड़कर एक अंग्रेजी अखबार ने निष्कर्ष निकाला है कि नए राज्यों ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिसका उल्लेख किया जा सके। आर्थिक-सामाजिक विकास न सही, इन इलाकों की जनता की भावनाएं पूरी होना, शासन का उसके करीब जाना ही महत्वपूर्ण था। पर छत्तीसगढ़ और झारखंड में नक्सली गतिविधियाँ नए राज्य बनने के बाद बढ़ीं हैं। उत्तराखंड में जो संगठन आंदोलन चला रहा था, राज्य बनने के बाद वह पृष्ठभूमि में चला गया। विकास की योजना भाजपा या कांग्रेस के पास ही थी तो क्षेत्रीय आंदोलन क्या था? दिक्कत लखनऊ, पटना या हैदराबाद की दूरी में नहीं है। दूर तो दिल्ली भी है। जरूरत इस बात की है कि सरकार किस तरह जनता के करीब जाए। हम सब बेहतर गवर्नेस चाहते हैं। अपनी भाषा, संस्कृति और भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार विकास चाहते हैं। शासन में भागीदारी चाहते हैं। इसपर किसी को आपत्ति नहीं। यह कामना बड़े राजनैतिक संगठनों की भी होनी चाहिए। वे ही बड़े आंदोलन चला सकते हैं। वे ही सरकार चलाते हैं। छोटा या बड़ा राज्य समाधान नहीं हैं। समाधान हम खुद हैं।
pjoshi@hindustantimes.com
लेखक ‘हिन्दुस्तान’ में दिल्ली संस्करण के
वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं

 

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