शहर तब और अब
हमें अपने बचपन के शहर की याद है। हरे भरे पुराने पेड़, नीम पीपल के। आस-पास बगीचे जहां हरी घास पर बैठकर क्षण भर सुस्ता सकें। सड़कें पगडंडिया, साफ सुथरी। उन्हें देखकर जाहिर है कि सफाई के जिम्मेदार...
हमें अपने बचपन के शहर की याद है। हरे भरे पुराने पेड़, नीम पीपल के। आस-पास बगीचे जहां हरी घास पर बैठकर क्षण भर सुस्ता सकें। सड़कें पगडंडिया, साफ सुथरी। उन्हें देखकर जाहिर है कि सफाई के जिम्मेदार कर्मचारी सार्वजनिक कर्तव्य के प्रति सजग हैं। हम यहां अपने माता-पिता के साथ रहते थे। वह दूसरे नगर में स्थानान्तरित हुये तो हम भी सामान के साथ लद लिये।
उस महानगर जाकर हमें छोटे शहर का अकसर ध्यान आता। कहाँ यह बहुमंजिली इमारतें फ्लैट, ईंट-सीमेन्ट और धुंआ उगलते लोहे के दानवों का बंजर रेगिस्तान, कहाँ वह हरित कोठी-बंगलों, बाग उद्यानों का स्थान। हमारे घर में नियम से नीम की मुलायम दतौन आती। वह कहाँ मिलती यहाँ? हम एक घंटे में स्कूल पहुंचते, अपना पर्वतारोही सा स्कूल बैग लेकर। जब लौटते तो थकावट से चूर, ढेर सा होमवर्क लिये। पिता जी को फिर डर लगा, अपने तबादले का। हमें एक बोर्डिंग स्कूल में निष्काषित कर दिया गया।
वहाँ थोड़े दिनों तो घर की स्मृति ने सताया। फिर मन लगने लगा। बड़ा अनुशासित जीवन था स्कूल का। अध्ययन और खेलकूद का संतुलन, हमें खास तौर से रास आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनाती? स्कूल के स्वर्ण काल को समाप्त होना ही था। आगे कॉलेज युनिवर्सिटी और नौकरी का प्रतियोगी वातावरण था। हम सोचते न कभी इम्तहान खत्म होंगे, न कभी हमें चैन की सांस आयेगी। इम्तहान में कामयाबी पाकर कुछ राहत मिली।
आज हम अपने उसी शैशव के शहर में हैं। अब वह सूबे की राजधानी है, अनाप-शनाप, अनियोजित विकास के चंगुल में फंसी। चार ओर मॉल हैं। दवा और दारू की दुकानें और अग्रेंजी उच्चारण और व्याकरण सिखाने की भी। रही-सही कोर-कसर सड़कों के चौड़ीकरण ने पूरी कर दी है। पुराने छायादार पेड़ इसकी भेंट चढ़ चुके हैं। नये जाने कब लगें? उनके लिये न जगह है न जमीन। विकसित शहरों में सड़क-इमारतें होती हैं। घास-फूस, फूल होने का वहाँ क्या सवाल है? यहाँ गधे गंवार, इंसानो तक की गुजर तो है नहीं, तो हरियाली की कैसे हो?
हमारी आधुनिक बस्ती में न नीम की दतौन है, न सब्जी के ठेलों की गुहार। अगर होगी तो कहीं गली कूंचों में होगी। अपने यहाँ तो बस बसों और भीड़ों का शोर है। बिजली-पानी की कमी तो सब जगह है हमारी तरक्कीशुदा बस्ती में भी। पर उसके साथ इंसानियत का अभाव आज विकास की पहचान है। यह तो भविष्य ही बतायेगा कि यह आदमी का सौभाग्य है कि दुर्भाग्य। हमें एक ही शक है। बिना बिजली पानी अगली पीढ़ी का जीवन कैसे कटेगा?