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फलनवा जीते चाहे ढेकनवा, कोई फर्क नहीं अलबत्ता

दुष्यंत का एक शेर चुनावी महासमर के धुरंधरों के साथ बेबस वोटरों पर भी एकदम सटीक बैठता है। सियासती महारथी ताल ठोंककर मैदान में उतर चुके हैं। एक बार फिर नौ साल बासी सपनों को थूक पॉलिश लगाकर मुफ्त बांट...

फलनवा जीते चाहे ढेकनवा, कोई फर्क नहीं अलबत्ता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 15 Nov 2009 10:56 PM
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दुष्यंत का एक शेर चुनावी महासमर के धुरंधरों के साथ बेबस वोटरों पर भी एकदम सटीक बैठता है। सियासती महारथी ताल ठोंककर मैदान में उतर चुके हैं। एक बार फिर नौ साल बासी सपनों को थूक पॉलिश लगाकर मुफ्त बांट रहे हैं। बस जरा अंदाज बदल गया है। पहले दूसरों का सच बताएंगे फिर अपना सपना लहराएंगे। भाजपा की प्रचार गाड़ी पर बड़ा कट आउट लगा है। ऊपर लिखा है: कोड़ा जी के तीन भाई- राजद,झामुमो और कांग्रेस आई

इस जुमले से जी नहीं भरा तो दूसरी ओर लिख दिया-पहले खाली पेट-खाली थाली, भाजपा से ही मनेगी दिवाली। गाड़ी के भोंपू पर गूंज रहा है यह नारा। कमल खिलाओ-राज में खुशहाली लाओ। अरे भईया सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि जनता कीचड़ बन जाए और तुम कमल बनकर इठलाओ, लहराओ। कांग्रेस का प्रचार भी हम किसी से कम नहीं की तर्ज पर चल रहा है। नारा है-पंजा का दीजिए साथ-आगे बढ़ाइए अपना हाथ। भाई जी झारखंड जनता को तो सिर्फ अपना गाल आगे बढ़ाने की प्रैक्टिस है। पंजे से तो कभी यह गाल लाल हुआ है तो कभी दूसरा नीला। कान से धुआं निकला अलग। नेपथ्य से ही पंजे के वार ने बड़ा सताया है। अब अगर फ्रंट में आ गया तो बुझिए क्या कमाल होगा। झाविमो तो झारखंडियों की जुल्फ सवांरने के लिए कंघी लेकर गली-गली घुम रही है। शुरू में ही सर से एक-एक बाल उड़ा दिए। बिल्कुल गंजा बना दिए। हद है अब गंजो के शहर में कंघी बेचने निकलो।

झामुमो के तीर-धनुष देखकर ही वोटरों का जी थरथराता है। गाहे-बेगाहे जब भी झारखंडी गांडिव उठा है, निशाना गरीब गुरबा ही बना है। झापा के एनोस का तो जवाब नहीं। बड़ा चुनकर मिला है नगाड़ा। जब भी बजाया, झारखंडियों की पीठ समझकर ही। कहीं पिघलती मोमबत्ती दिख रही है तो कहीं टोकरी। नारा है सारा कूड़ा बुहार कर डाल दो टोकरी में। फिर भी योद्धाओं को यकीन है कि डुबकी लगाकर मोती ढूंढ लेंगे। हिन्दी व्याकरण के भविष्य काल के गा-गी-गे की पूंछ पकड़कर बैतरनी की जुगत में भिड़े हैं सपनों के सौदागर। वोटर एकदम किंकर्तव्य-विमूढ़। आगे कुआं पीछे खाई। सबको एक-एक कर परखा है अवाम ने। हर झारखंडी के मन में राज्य की तसवीर कुछ ऐसी है।

कल नुमाईश में मिला था वो चिथड़े पहने- मैने पूछा नाम, तो बोला कि झारखंड है। बासी सपनों से मन बिल्कुल ऊब चुका है। खोखले वादे विकास और प्रगति के चोंचले से जी नहीं बहलता। मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं, मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं हूं। सो जनता चीख-चीखकर कह रही है कि फलनवा जीते चाहे ढेकनवा, कोई फर्क नहीं अलबत्ता।

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