क्रिकेट एक संपूर्ण लीला है और सचिन उसे संभव करते, उसमें खेलते भगवान हैं! इस लीलाप्रिय देश में वे कृष्ण सरीखे हैं, जो दर्शकों रूपी गोपियों को अपनी बल्ले रूपी मुरली की तानों के लय से रिझाते हैं। सब लोग अपने सारे काम तजकर उनकी मुरली की मधुर धुन को सुनने-देखने चले आते हैं। टीवी पर देखते हैं।
रेडियो पर सुनते हैं। अखबार में पढ़ते हैं। उनकी एक एक रन-लीला को इस तरह याद करते हैं, जैसे यह एक रन-लीला दूसरी तीसरी और तीस हजारवीं रन लीला से किस तरह मनोहर और मौलिक है। सचिन भगवान हैं। यह बात दुनिया के बड़े- बड़े क्रिकेट खिलाड़ी कहते हैं।
अमिताभ कहते हैं कि सचिन की खेल लीला को देखने के लिए वे अपनी शूटिंग को भी आगे पीछे करा देते हैं। लता मंगेशकर कहती हैं कि वे इतने महान किंतु इतने विनम्र हैं कि मेरा गाना सुनने आए और मुङो बताया तक नहीं। लता ने उन्हें गाने से पहले मंच से नमस्ते कहा। सचिन सिर्फ नायक नहीं हैं, वे सिर्फ लीजेंड नहीं हैं। वे इन सबसे आगे ऐसे ‘आइकन’ हैं, ऐसी ‘मूरत’ हैं, जिसके दर्शन मात्र से क्रिकेट लीला का अविरल अक्षय अटूट आनंद बरसता है। क्रिकेट का खेल अगर लीला बनकर सबका आल्हादकारी रस बन गया है तो उसमें सचिन की रनों की तानें ही बजती हैं।
आइकन वो दिव्य-मूरत होती है, जिसे उसके भक्त या आज की भाषा में कहें फैन बनाया करते हैं। चाहने वाले अपनी भावना का अक्षय निवेश करते हैं। प्रेम और श्रद्धा का निवेश करते हैं और उसकी नित्य उपासना करते हैं। भक्ति भावनामय इस देश में भावनाओं का निवेश पंरपरा प्रसूत है। भागवत में भगवान हैं। नए क्रिकेट भागवत के भगवान सचिन हैं। हिंदी के दिलजलों को ऐसी बातें हास्यास्पद लग सकती हैं, लगें। अपने ठेंगे से। यह लेखक क्रिकेट की बारीकियों से बहुत कुछ अनभिज्ञ है और इसीलिए क्रिकेट के महानाट्य का निस्संग रस का आश्रय ‘प्रमाता’ है जो रस खोजता है।
हिंदी में स्वर्गीय प्रभाष जोशी सचिन पर कुर्बान होते कलम तोड़ कर स्याही पी जाते थे। हिंदी के यांत्रिका विचारों वाले मृतभाव कोषों वाले रचनाकार उनके सचिनवाद को पढ़कर झल्लाते थे कि ये क्या ले के बैठ गया? सचिन उनका हीरो था। इस ग्वाले का वह किशन कन्हैया है। प्रभाष उनकी पिछली बड़ी पारी देखते-देखते ही दिल को आउट कर बैठै। पता नहीं कितने दिल तब टूट जाते हैं, जब सचिन आउट होते हैं या भारत जीतते जीतते हार जाता है।
क्रिकेट राष्ट्र का रूपक है। सचिन का आना भरोसा देता है कि अब डूबती नैया को ये पार लगा देगा। यह हमारा रक्षक है, लाज को यही रखेगा। जब-जब क्रिकेट की हानि होती है, तब-तब वे सचिन अवतार लेते हैं। सचिन का खेल एक मनोहर वृतांत की तरह प्रकट होता है। इसे लीला विमर्श से बेहतर समझा जा सकता है। वे लोग, जो क्रिकेट की बारीकियां नहीं जानते, उसे एक लीला की तरह लेते हैं और इस तरह वे अपने चीन्हें प्रभु के साथ-साथ खेलते हैं। लीला में सब शामिल रहते हैं, दर्शक लीला में सक्रिय रहते हैं। लीला में सब कुछ होता है। कभी खुशी, कभी गम। लीला देख आदमी कभी हंसता, कभी रोता है। क्रिकेट में सारे रस हैं।
हिंदी साहित्य में लीलाएं खूब लिखी गई हैं। रास लीला राम लीला के क्रम में अब सचिन लीला जुड़ चली है।
हिंदी साहित्यकारों में खेल प्रेम नहीं है। इसीलिए साहित्य सूखा-रूखा है। रसविहीन-आनंदविहीन है। साहित्यकारों में खेल भाव, लीला भाव नहीं है। निरंतर चिढ़चिढ़े, खिसियाते, गुर्राते हुए एक दूसरे को नीचा दिखाने में व्यस्त ‘नियम रहितं अनयिम परतंत्रम्’ का लाइसेंस लेकर इस सूत्र में जरूरी परस्पर खेल की जगह खत्म कर देते हैं। खेलो और खेलने दो की जगह यहां का नारा है- न खेलो, न खेलने दो। इसीलिए हिंदी की विराट भाषा लीला में लेखकों के पास पाठक नही हैं।
हिंदी साहित्य में इस खेल भाव को लाना है तो सचिन से सीखो भैये! वह तुम्हारे बच्चों का आंनदकारी अनिवार्य विषय है। तुम्हारा क्यों नहीं? वह सबका दुलारा है, सबके आंनद का आलंबन है। आइकन है। उसकी बात सबसे सवाई है। क्रिकेट विजुअल उपन्यास है। पारी की कहानी है। हर बॉल मार्मिक कविता की एक-एक पंक्ति। आइकन प्रभु जब लीला रचता है तो सारे वीर रस, भयानक रस, हास्य रस और ताली रस या गाली रस बरसा करते हैं। आइकन रोज नहीं बनते। जैसे कि अवतार हर रोज नहीं होते!