फोटो गैलरी

Hindi Newsयुद्ध के नगाड़ों के बीच शांति की तूती

युद्ध के नगाड़ों के बीच शांति की तूती

रविवार को माओवादियों ने फिर हल्ला बोला। उन्होंने पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के चार जवानों को मार डाला। माओवादियों ने ऐसी मारकाट कोई पहली बार नहीं की। पिछले कई दिनों से यह...

युद्ध के नगाड़ों के बीच शांति की तूती
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 09 Nov 2009 11:18 PM
ऐप पर पढ़ें

रविवार को माओवादियों ने फिर हल्ला बोला। उन्होंने पश्चिम बंगाल के झाड़ग्राम में ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स के चार जवानों को मार डाला। माओवादियों ने ऐसी मारकाट कोई पहली बार नहीं की। पिछले कई दिनों से यह सिलसिला जारी है। उनके निशाने पर मुख्य रूप से सुरक्षा बल ही हैं। अगर देश के लाल गलियारे से आ रही इन चुनौतियों और भारत सरकार की तैयारियों व गृहमंत्री के बयानों पर गौर करें तो लगता है कि आंतरिक युद्ध की दुंदुभी बज चुकी है।

ऐसे में शांति की बात करने वालों को सरकार द्वारा माओवादी समर्थक मान लिए जाने का खतरा है तो माओवादी उन्हें धोखा देने वाले लिबरल बता सकते हैं। यही तर्क एक जमाने में जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे के लिए दिया भी गया था। दोनों तरफ से एक दूसरे को हिंसक बता कर हिंसा के माध्यम से हिंसा को खत्म करने की तैयारी चल रही है। एक तरफ हिंसा के मौजूदा उफान के लिए नवउदारवादी नीतियों को दोषी ठहराया जा रहा है।

तर्क यह है कि उन्हीं के चलते आदिवासियों के संसाधन उनसे छीने गए और उनके अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में हमारे लिए उन तर्को पर गौर करना जरूरी हो जाता है, जो पूंजीवादी राज्य के चरित्र को स्पष्ट करने व दुनिया भर के सशस्त्र जनसंघर्षों का समर्थन करने के लिए वामपंथी लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा दिए जा रहे हैं।

वामपंथी विचारों के सालाना संकलन सोशलिस्ट रजिस्टर 2009 की ‘वायलेंस टुडे-एक्चुअली इक्जिसटिंग बारबरिज्म’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक में वे सारे तर्क एक साथ मौजूद हैं, जिनके आधार पर पूरी दुनिया में हथियार उठा लेने को उचित ठहराया गया है। पुस्तक के संपादक लियो पैनिच और कोलिन लेज ने अपनी भूमिका में बताया है कि 1916 में समाजवादी नेता रोजा लक्जमबर्ग ने फ्रेडरिक एंगेल्स के मशहूर कथन ‘पूंजीवादी समाज के सामने एक दुविधा होती है, या तो वह समाजवाद की तरफ जाए या बर्बरता की ओर लौट जाए’ को उद्धृत करते हुए पूछा था कि आज बर्बरता की तरफ लौटने का मतलब क्या होता है? जवाब में रोजा ने ही कहा था कि यह विश्व युद्ध ही बर्बरता की तरफ लौटने की एक मिसाल है।

संपादकगण यह स्वीकार करते हुए कि बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में करीब 14 करोड़ लोग मारे गए थे, लिखते हैं कि आज की दुनिया में 1.3 खरब डालर हर साल हथियारों पर खर्च हो रहा है। यह खर्च शीतयुद्ध के चरम पर हुए खर्च से भी ज्यादा है। इसलिए शीतयुद्ध के अंत और इतिहास के अंत के साथ शांति के जिस लाभांश की कल्पना की गई थी, वह कहीं से दिखाई नहीं पड़ रहा है।

संकलन के आखिरी लेख में जाने माने मार्क्सवादी अर्थशास्त्री और डार्कर स्थित थर्ड वर्ल्ड फोरम के निदेशक सामिर अमीन हिंसा के लिए आतंकवाद से ज्यादा नवउदारवादी विचार और व्यवस्था को दोषी ठहराते हैं। उनका मानना है कि मानवता की रक्षा लोकप्रिय संघर्षो को और रेडिकल बनाकर की जा सकती है। इस दौरान वे उन लिबरल लोगों से सावधान करते हैं, जो पूंजीवाद के मानवीय चेहरे की वकालत करते हैं। लेकिन सैन्यवाद और हिंसा के खिलाफ उनके तर्क उस समय ठंडे पड़ जाते हैं, जब वे कहते हैं कि आक्रामक साम्राज्यवाद के खिलाफ जनता को हथियार उठाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।

रोजा लक्जमबर्ग फाउंडेशन के पॉलिसी एनलिसिस विभाग के प्रमुख माइकल ब्राई हिंसा के मौजूदा स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध के छह साल के युद्ध में जितने मानव मारे गए उतने बच्चों पिछले छह सालों में भूख और इलाज की जा सकने वाली बीमारियों से मरे हैं। दरअसल हिंसा तो मनुष्य के अस्तित्व रक्षा से जुड़ी है। उस पर खतरा बढ़ेगा तो व्यक्ति हिंसा का सहारा लेगा ही।

होमो सेपियन्स जाति का अस्तित्व हमेशा इस बात पर निर्भर रहा कि वह हत्या करने की अपनी क्षमता का सीमित प्रयोग कर सके। लेकिन आज के मनुष्य की हिंसा की अपार क्षमताओं से ब्राई भयभीत हैं। वे एक तरफ पूंजीवादी हिंसा के भयानक दृश्यों का वर्णन करते हैं तो दूसरी तरफ वामपंथी राजनीतिक संघषों को इस बात की चेतावनी भी देते हैं कि वे गुलाग, चीन की सांस्कृतिक क्रांति की हिंसा और खमेर रूज के नरसंहारों को फिर न होने दें। मानव सभ्यता तभी बच सकती है, जब नैतिकता के न्यूनतम व्यवहार की गारंटी की जाए। संकलन का यही लेख कम्युनिस्ट और समाजवादी सरकारों की हिंसा की आलोचना करता है।

हिंसा की इसी एकतरफा व्याख्या से प्रेरित हो कर माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी दावा करते हैं कि उन्होंने जनता पर होने वाले दमन और शोषण के खिलाफ हथियार उठाए हैं और जब तक वह समाप्त नहीं हो जाएगा वे हथियार नहीं डालेंगे। पर वे इस बात को भूल जाते हैं कि भारत के शहीद-ए-आजम और सभी क्रांतिकारियों के पूज्य भगत सिंह ने अपने मशहूर लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ में साफ  कहा है कि बहुसंख्यक जनता का व्यापक संघर्ष अहिंसक ही होगा।

विडंबना देखिए कि महात्मा गांधी के ‘हिंद स्वराज’ और समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया के शताब्दी वर्ष में शांति और वर्ग सहयोग की बात करने वाले लगभग नगण्य हो गए हैं। जबकि गांधी ने लंदन में हिंसा के सहारे उपनिवेशवाद से भारत की मुक्ति चाहने वाले सावरकर जैसे नौजवानों से बहस के बाद ही ‘हिंद स्वराज’ की रचना की थी और अहिंसक संघर्ष में ही भारत सहित पूरी दुनिया की मुक्ति देखी थी। दूसरी तरफ समाजवाद की यूरोपीय बहसों से अच्छी तरह वाकिफ डॉ राममनोहर लोहिया ने महसूस किया था कि यूरोप में पैदा हुए पूंजीवाद और समाजवाद दोनों में हिंसा और युद्ध अनिवार्य है।

आज युद्ध की दुंदुभी के बीच प्रासंगिक ये विचार तूती की तरह दब गए हैं, जबकि इन्होंने ही भारत की आजादी के लिए अहिंसक संघर्ष किया और इसे सच्च लोकतंत्र बनाने के लिए लड़ते रहे। उनकी यह पराजय देश को महंगी पड़ रही है। अगर पिछले दस-बारह साल में माओवाद का प्रसार हुआ है तो उसके पीछे हमारी आर्थिक नीतियों को भी अपना जिम्मा लेना होगा। उसी के चलते जनता को एक तरफ माओवादी क्रूरता का डर सता रहा है तो दूसरी तरफ तमाम हथियारों से लैस सरकारी बलों के दमन का। ऐसे में आज अराजनीतिक और अतिवादी बुद्धिजीवी नहीं गांधी, नेहरू, लोहिया, अंबेडकर और उनके जैसे अन्य मध्यमार्गी विचार ही हिंसा की बढ़ती संस्कृति और आंतरिक युद्ध से भारत को बचा सकते हैं।

लेखक हिन्दुस्तान में एसोशिएट एडिटर हैं

atripathi@hindustantimes.com

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें