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मुसलमान क्यों न गाएं वंदे मातरम्

जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने फिजूल ही बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। देवबंद का जो दारूल-उलूम योग के पक्ष में और आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी करता है, वह वंदे मातरम् के विरुद्ध क्यों है? गृहमंत्री...

मुसलमान क्यों न गाएं वंदे मातरम्
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 04 Nov 2009 11:49 PM
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जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने फिजूल ही बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। देवबंद का जो दारूल-उलूम योग के पक्ष में और आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी करता है, वह वंदे मातरम् के विरुद्ध क्यों है? गृहमंत्री चिदम्बरम और स्वामी रामदेव का सम्मान करने वाला देवबंद वंदे मातरम् को रद्द करे, इससे बढ़कर विचित्र बात क्या हो सकती है? यह बात भी समझ में नहीं आती कि देवबंदियों को देशद्रोही कहा जा रहा है। जो वंदे मातरम् न गाए, वह देशद्रोही कैसे हो गया?

वंदे मातरम् तो अभी डेढ़ सौ साल पहले पैदा हुआ है। क्या उसके पहले यह देश नहीं था? उस समय लोग क्या गाते थे? क्या वे देशद्रोही थे? जो वंदे मातरम् गाने को देशभक्ति का प्रमाण-पत्र बना रहे हैं, उनमें से ज्यादातर लोगों को तो वह पूरा लंबा गीत याद भी नहीं होता और याद भी है तो वे उसका अर्थ नहीं जानते। उन्हें न बांग्ला आती है न संस्कृत! जब वंदे मातरम् गाया जाता है तो कितने ही लोग चुप रहते हैं। क्या वे देशद्रोही नहीं? जो न गाना चाहे, क्या उसके गले में उंगली डालकर राष्ट्रगीत गवाया जाएगा? जबरदस्ती लोगों को राष्ट्रभक्त कैसे बनाया जाएगा? जैसे गुलाब में खुशबू अपने आप पैदा होती है, वैसे ही नागरिकों में राष्ट्रभक्ति पनपनी चाहिए। जिस गुलाब में खुशबू नहीं होगी, उसे कौन सूंघेगा? जो अपने राष्ट्रगीत, राष्ट्रध्वज और संविधान का सम्मान नहीं करता, उसका सम्मान कौन करेगा? राष्ट्रगीत के खिलाफ जो फतवे जारी कर रहे हैं, वे देशद्रोही नहीं, बुद्धिद्रोही हैं।

वंदे मातरम् में ऐसा क्या है कि मुसलमान उसे न गाएं? बंकिमचंद्र ने जो वंदे मातरम् 1875 में लिखा था, उसके सिर्फ पहले दो पद हमारे राष्ट्रगीत के रूप में गाए जाते हैं। इन दो पदों में एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो इस्लाम के विरुद्ध हो। फतवा जारी करने वाले लोगों को पता नहीं कि ‘वंदे’ शब्द का सही अर्थ क्या है। संस्कृत का ‘वंदे’ शब्द वंद धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ है, प्रणाम, नमस्कर, सम्मान, प्रशंसा। कुछ शब्दकोशों में पूजा-अर्चना भी लिखा हुआ है, लेकिन मातृभूमि की पूजा कैसे होगी? लाखों वर्गमील मे फैली भारत-भूमि की कोई पूजा कैसे कर सकता है? वह कोई व्यक्ति नहीं, वह कोई मूर्ति नहीं, वह कोई पेड़-पौधा नहीं, वह कोई चित्र या प्रतिमा नहीं। उसे किसी मंदिर या देवालय में कैद नहीं किया जा सकता। कोई उसकी आरती कैसे उतारेगा, उसकी परिक्रमा कैसे लगाएगा, उसका अभिषेक कैसे करेगा? यहां मातृभूमि की वंदना का सीधा-साधा अर्थ है, अपने देश के प्रति श्रद्धा और सम्मान, कौन-सा ऐसा इस्लामी देश है, जो अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा रखने का विरोध करता है। हजरत मुहम्मद ने तो यहां तक कहा है कि माता के पैरों तले स्वर्ग होता है।

मां का मुकाम इतना ऊंचा है कि हमारे राष्ट्रगीत में राष्ट्रभूमि को मातृभूमि कहा गया है। अफगान लोगों से ही हमने ‘मादरे-वतन’ शब्द सीखा है। क्या वे लोग मुसलमान नहीं हैं? बांग्लादेश के राष्ट्रगान में मातृभूमि का उल्लेख चार बार आया है। क्या सारे बांग्लादेशी काफिर हैं? इंडोनेशिया, तुर्की और सऊदी अरब के राष्ट्रगीतों में भी मातृभूमि के सौंदर्य पर जान लुटाई गई है। क्या ये राष्ट्र इस्लाम का उल्लंघन कर रहे हैं? मातृभूमि की वंदना पर हिंदुओं का एकाधिकार नहीं है। यह धारणा संपूर्ण एशिया में फैली हुई है। इसे हिंदू, मुसलमान, बौद्ध सभी मानते हैं। 

मातृभूमि की मूर्तिपूजा-जैसी पूजा तो बिल्कुल असंभव है, लेकिन दिमागी तौर पर अगर यह मान लिया जाए कि मातृभूमि पूज्य है तो इससे तौहीद (एकेश्वरवाद) का विरोध कैसे हो सकता है? क्या मातृभूमि अल्लाह की रकीब (प्रतिद्वंद्वी) बन सकती है? मातृभूमि की जो पूजा करेगा, क्या वह यह मानेगा कि उसके दो अल्लाह हैं, दो ईश्वर हैं, दो गॉड हैं, जो जिहोवा हैं, दो अहुरमजद हैं? बिल्कुल नहीं। यदि मातृभूमि पूज्य है तो अल्लाह तो परमपूज्य है। दोनों में कोई तुलना न के बराबर है।

इसलिए वंदे मातरम् को तौहीद के विरुद्ध खड़ा करना और उसे इस्लाम विरोधी बताना बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं लगता। जहां तक वंदे मातरम् के उर्दू तजरुमे का सवाल है, उसमें ‘वंदे’ का मतलब है, सलाम या तस्लीमात! कहीं भी ‘वंदे’ को इबादत या पूजा नहीं कहा गया है। इसी तरह वंदे मातरम् के अंग्रेजी अनुवाद में ‘वंदे’ को ‘सेल्यूट’ कहा जाता है। उसे कहीं भी पूजा ‘वरशिप’ नहीं कहा गया है। इसीलिए वंदे मातरम्  को बुतपरस्ती से जोड़ने में कोई तुक दिखाई नहीं पड़ती।

तो फिर कुछ मुस्लिम नेता ‘वंदे मातरम्’ का विरोध क्यों करते हैं? सच्चाई तो यह है कि वंदे मातरम् का विरोध मुसलमानों ने नहीं, मुस्लिम लीग ने किया था। बंगाल के हिंदुओं और मुसलमानों ने यही गीत एक साथ गाकर बंग-भंग का विरोध किया था, कांग्रेस के अधिवेशनों में मुसलमान अध्यक्षों की सदारत में यह गीत हमेशा लाखों हिंदू और मुसलमानों ने साथ-साथ गाया है, गांधी के हिंदू और मुसलमान सत्याग्रहियों ने चाहे वे बंगाली हों या पठान, वंदे मातरम् गाते-गाते अपने सीने पर अंग्रेज की गोलियां झेली हैं। 

मुस्लिम लीग में शामिल होने के पहले तक स्वयं मुहम्मद अली जिन्ना वंदे मातरम् गाया करते थे। मौलाना आजाद से बढ़कर इस्लाम को कौन मुसलमान जानता था? उन्होंने स्वयं इस गीत को गाने की सिफारिश की थी। मुस्लिम लीग को सिर्फ वंदे मातरम् से एतराज नहीं था, हर उस चीज से उसे नफरत थी, जो हिंदू और मुसलमान को जोड़े रखती थी।

मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम् को बंकिम के उपन्यास ‘आनंदमठ’ और उन संन्यासियों से जोड़ दिया, जिन्होंने उसे उपन्यास के खलनायकों के विरुद्ध गाया था। वे खलनायक संयोगवश मुस्लिम जागीरदार थे। मुस्लिम लीग यह भूल गए कि ‘आनंदमठ’ छपा 1882 में और यह गीत लिखा गया था, 1875 में। इसके अलावा ‘आनंदमठ’ के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे, मुस्लिम जागीरदार नहीं। मुस्लिम लीग ने अंत तक अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा, लेकिन अपनी दुबरुद्धि वह यहीं छोड़ गई।

इस दुर्बुद्धि को हमारी स्वतंत्र भारत की जमीयत अपनी छाती से क्यों लगाए हुए है? यह जमीयत इस्लाम के पंडितों, विद्वानों, आलिमों की संस्था है। वह मुस्लिम लीगियों की तरह कुर्सी प्रेमियों का संगठन नहीं है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह सारे मसले पर दुबारा खुलकर सोचे और अपने मुसलमान भाइयों को सही संदेश दे। वह मुस्लिम लीग के टोटकों की लाश क्यों ढोए? उसका मकसद इस्लाम की खिदमत है न कि मुस्लिम लीग का वारिस बनना! ‘वंदे मातरम्’ जैसे नकली मुद्दे कभी के मुस्लिम लीग की कब्र में सो गए हैं। अब उन्हें फिर जगाने से क्या फायदा?

लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद् के अध्यक्ष हैं

dr.vaidik@gmail.com

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