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‘भारतीय उपमहाद्वीप’ से एतराज क्यों

ओस्लो के ‘नार्वेजियन म्यूज़ियम ऑफ रेसिस्टेंट’ को देखने पर यह बात तो साफ हो जाती है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रेडियो, जासूसी का एक सशक्त माध्यम हुआ करता था। हिटलर की आंख-कान कहे जाने...

‘भारतीय उपमहाद्वीप’ से एतराज क्यों
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 27 Oct 2009 10:46 PM
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ओस्लो के ‘नार्वेजियन म्यूज़ियम ऑफ रेसिस्टेंट’ को देखने पर यह बात तो साफ हो जाती है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रेडियो, जासूसी का एक सशक्त माध्यम हुआ करता था। हिटलर की आंख-कान कहे जाने वाले ‘गेस्टापो’ के जासूसों ने रेडियो का किस हद तक इस्तेमाल किया, यह बात इस म्यूजियम को देखने के बाद समझ में आ जाती है। रेडियो की लोकप्रियता आज भी कम नहीं हुई है। पर एफएम के आने के बाद उसका फॉर्म जरूर बदला है। पश्चिम के पब्लिक ब्रॉडकास्टर क्या रेडियो को अब भी जासूसी का सशक्त माध्यम समझते हैं, इस बारे में उन्हें फंड देने वाली सरकारें बेहतर बता सकती हैं। कोई छह साल मेरे लिये जर्मनी में काम करना उतना महत्वपूर्ण नहीं था, जितना कि इस ख़लिश को ढोना कि क्या मेरा भी भारत के खिलाफ अभियान में इस्तेमाल हुआ। 30 भाषाओं में प्रसारण करने वाली जर्मनी की पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग संस्था में काम करने वाले हम जैसे भारतीय मूल के संपादकों पर लंबे समय से इसका दबाव था कि ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ शब्द का इस्तेमाल बंद किया जाए।
अंतत: वही होता है, जो आपका नियोक्ता चाहता है। 2005 में ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ जर्मन रेडियो की शब्दावली से गायब हो गया और उसके बदले ‘दक्षिण एशिया’ का प्रयोग हम सब करने लगे थे। पाकिस्तानी ‘डायसपोरा’ की यह बड़ी फतह थी। बहुत बाद में पता चला कि बर्लिन स्थित पाक दूतावास ने इसे बड़ी जीत मानते हुए एक जलसे का आयोजन भी किया था। कोई पूछ सकता है कि एक विदेशी रेडियो सर्विस से पाक दूतावास का क्या लेना-देना?
इसकी तफसील में जाने पर ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ वाली कहानी की दिशा बदल जाएगी। संक्षेप में जो बात ठोक कर कही जा सकती है, वह यह है कि ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ पर प्रतिबंध लगवाने में उर्दू सर्विस के पाकिस्तानी मित्रों का परोक्ष रूप से बड़ा रोल रहा था। जिन पुराने लोगों ने 40-45 साल के प्रसारण को सुना है, उनका निजी अनुभव यही रहा कि पाकिस्तान से जर्मनी या लंदन आये उर्दू ब्रॉडकास्टर ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ बोलना ही ‘हराम’ समझते थे। ‘सब कांटिनेंट’ या ‘साउथ एशिया’ कहने से उन्हें लगता था कि आज हमने ‘हलाल’ की कमाई कर ली।
इसी तीन अक्टूबर को पाकिस्तानी दैनिक ‘डॉन’ में मुबारक अली ने एक छोटी सी टिप्पणी की कि ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ दरअसल ग्रीक विद्वानों द्वारा दिया गया नाम है, जिसे बाद में अंग्रेजों ने भी आत्मसात कर लिया। मुबारक अली लिखते हैं, ‘समय बदल गया, फिर भी भारत इसे शास्वत मानता रहा है।’ पाकिस्तान में दरअसल जो लोग बौद्धिक आतंकवाद के पैरोकार हैं, उन्हें ‘इंडियन सब-कांटिनेंट’ के व्यापक स्वरूप को लेकर ही कष्ट होता रहा है। उनका सवाल है कि इंडियन टेक्टोनिक प्लेट, हिमालय, हिंद महासागर की भौगोलिक परिधि में पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव यहां तक कि विवादास्पद अक्साई चीन और शिन्ज़ियांग को क्यों आना चाहिए? क्यों ये देश और क्षेत्र भारतीय उपमहाद्वीप की परिधि में आएं? डेली टाइम्स में पाकिस्तान के अवकाशप्राप्त एयर वाइस मार्शल शहज़ाद चौधरी ‘पाकिस्तान डिहाइफनेटेड’ हेडलाइन वाले लेख में एक जगह लिखते हैं, ‘उपमहाद्वीप’ भारत-पाक के बीच अपमानबोधक शब्द बनता गया है।’
‘भारतीय उपमहाद्वीप’ को लेकर सिर्फ पाकिस्तान ही हल्ला नहीं कर रहा, बल्कि चीन को ब्रिटिश राज के समय से ही आपत्ति है कि तिब्बत, अक्साई चीन और शिन्ज़ियांग इसकी ज़द में क्यों आएं। रूसी ज़ार के ज़माने में अंग्रेजों ने लद्दाख के रास्ते उन्हें रोका था। दुनिया के सबसे वीरान, सबसे उंचे, बर्फीले इलाके में लंबे समय तक चले ‘साइलेंट युद्ध’ को कूटनीतिकों ने ‘ग्रेट गेम’ नाम दिया था। 1876 में ब्रिटिश शासकों ने शिन्ज़ियांग के मांचू सम्राट को जिस तरह से आर्थिक और सामरिक सहयोग दिया था, उसके बिना पर ही इस इलाक़े को भारतीय उपमहाद्वीप का हिस्सा अंग्रेज़ों ने मान लिया था। कई बार भारतीय उपमहाद्वीप के ‘कागज़ी विस्तार’ का सवाल चीनी कूटनीतिकों, इतिहासकारों और विश्लेशकों के लिए विरोधाभास का कारण भी बनता है।
चीन से कहीं बढ़कर, इस शब्द के बहाने पाकिस्तान राजनीतिक रूप से अति संवेदनशील होता चला गया है। पता नहीं, हमारे यहां का विदेश मंत्रलय पाकिस्तान में ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ को लेकर हो रहे शाब्दिक बदलावों से कितना वाकिफ है। लेकिन पिछले दो दशक के पाकिस्तानी दस्तावेज़ों, उनके सरकारी प्रस्तावों को देखने के बाद साफ नज़र आता है कि इस सवाल को उन्होंने अपनी संप्रभुता और राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ रखा है। 1968 में ‘जूलोजिकल सोसाइटी ऑफ पाकिस्तान’ की बुनियाद रखी गई। इस सोसाइटी ने एक शब्द चलाना शुरू किया है- ‘पाकिस्तान सबकांटिनेंट’।
1994 से ‘16 तक के प्रस्तावों में जूलोजिकल सोसाइटी ऑफ पाकिस्तान ने ‘इंडो- पाकिस्तान सबकांटिनेंट’ जैसे शब्द चलाये। लेकिन बाद में यह भी वर्जित हो गया। इस मुद्दे पर सबसे अधिक सक्रिय पाकिस्तानी विदेश मंत्रलय ही दिखता है। पाक विदेश मंत्रलय का स्पष्ट निर्देश है कि या तो ‘साउथ एशियन सबकांटिनेंट’ या फिर ‘सबकांटिनेंट’ शब्द ही चलाये जायें। बात वहां के विदेश मंत्रलय तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पाकिस्तान का पूरा सरकारी महकमा इतिहास पलटने के काम में पीछे नहीं रहा है।
पाकिस्तान के प्रख्यात इतिहासकार प्रो़ अहमद हसन दानी अब तो जीवित नहीं रहे, लेकिन 2005 में जर्मन रेडियो को दिये एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया था कि तथ्यों को तोड़कर प्रस्तुत करने के दबाव से यहां के इतिहासकार कभी बरी नहीं रहे थे। डॉ़ दानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से डिग्री लेने वाले पहले मुसलमान थे। पाकिस्तान में बसने के बाद वे भी अपने लेखन में ‘इंडियन सबकांटिनेंट’ लिखने से परहेज़ करते रहे। ‘एंटी इंडियन सबकांटिनेंट’ अभियान का एक हिस्सा पाकिस्तान के दूसरे बड़े इतिहासकार खु़र्शीद कमाल अज़ीज़ भी रहे हैं। उनकी मशहूर पुस्तक ‘ब्रिटिश इंपीरियलिज्म इन इंडिया-पार्टी पॉलिटिक्स इन पाकिस्तान’, में इसकी झलक साफ दिखाई देती है। अमेरिकी और जर्मन विश्वविद्यालयों में मुस्लिम इतिहास पर पाकिस्तानी नज़रिये को प्रस्तुत करने वाले प्रो. असलम सैयद ने साफ स्वीकार किया कि उन्हें ‘सब कांटीनेंट’ कहने में ही सुविधा होती है।
आज की तारीख़ में शायद ही कोई पाकिस्तानी इतिहासकार, बुद्धिजीवी ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ कहने की हिम्मत करता हुआ मिलेगा। हमारा विदेश मंत्रालय इस सवाल पर ‘मासूम’ क्यों बना हुआ है? क्यों विदेश में सक्रिय ‘इंडियन डायसपोरा’ के बुद्धिजीवी इसे ‘काउंटर’ करने में पीछे रह जाते हैं? यह सोचकर निराशा होती है !
लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली स्थित संपादक हैं
pushpr1@rediffmail.com

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