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जमाने के सच से बड़े थे सपने

मैने 1983 में कम्युनिटी ऑर्गनाइजर (सामुदायिक संगठनकर्ता) बनने का फैसला किया। इसके बारे में मुझे कोई विस्तृत जानकारी नहीं थी, मैं ऐसे किसी को नहीं जानता था, जो इस तरह आजीविका चला रहा हो। जब कॉलेज के...

जमाने के सच से बड़े थे सपने
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 09 Oct 2009 10:19 PM
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मैने 1983 में कम्युनिटी ऑर्गनाइजर (सामुदायिक संगठनकर्ता) बनने का फैसला किया। इसके बारे में मुझे कोई विस्तृत जानकारी नहीं थी, मैं ऐसे किसी को नहीं जानता था, जो इस तरह आजीविका चला रहा हो। जब कॉलेज के मेरे साथियों ने पूछा कि कम्युनिटी ऑर्गनाइजर का काम क्या होता है तो मैं उन्हें कुछ नहीं बता पाया। इसकी जगह, मैं परिवर्तन की जरूरत के बारे में बताने लगा। ह्वाइट हाउस में परिवर्तन के बारे में, जहां रीगन और उनके कारिंदे अपने गंदे काम कर रहे थे। कांग्रेस में परिवर्तन के बारे में, जो पिछलग्गू और भ्रष्ट हो गई थी। देश के मूड में परिवर्तन के बारे में, जो उन्मादी और आत्मलिप्त हो रहा था। मैं कहता, परिवर्तन ऊपर से नहीं आएगा, यह जमीन के स्तर पर लोगों को सक्रिय करने से आएगा।

और मैं यही करूंगा। मैं अश्वेतों को संगठित करूंगा, निचले स्तर पर परितर्वन के लिए।
मेरे श्वेत-अश्वेत मित्र, मेरे आदर्शो के लिए मेरी जम कर तारीफ करते और अपने ग्रेजुएट स्कूल के आवेदन भेजने के लिए डाकघर की ओर बढ़ जाते। मैं उन्हें शंकालु होने के लिए दोष नहीं दे सकता था। अब पीछे मुड़कर देखते हुए, मैं अपने फैसले के पीछे का तर्क गढ़ सकता हूं, बता सकता हूं कि ऑर्गनाइजर बनना कैसे एक बड़े आख्यान का हिस्सा था, जो मेरे पिता से और उनके पहले उनके पिता से, मेरी मां और उसके माता-पिता से, इंडोनेशिया के भिखरियों और किसानों और लोलो की पराजय से शुरू होकर, रे और फ्रैंक, मार्कस और रेगिना से होते हुए, मेरे न्यूयॉर्क आने, मेरे पिता की मृत्यु तक फैला था। मैं देख सकता हूं कि मेरे फैसले केवल सचमुच मेरे नहीं थे- और ऐसा होना भी चाहिए, कि इससे उलटा दावा कर दरअसल दुखद किस्म की स्वतंत्रता का पीछा करना होगा।
लेकिन यह बोध बाद में आया। उस समय, जब मैं कॉलेज में ग्रेजुएट करने वाला था, मैं मुख्यत: आवेग में काम करता था, उस सालमन मछली की तरह जो प्रतिकूल धारा में भी आंख मूंद कर अपने प्रजनन अड्डे की ओर तैरती है। कक्षाओं और सेमिनारों में, मैं इन आवेगों को उन नारों और सिद्धांतों का चोला पहना देता था, जो किताबों में पढ़ता था, इस गलत सोच के साथ कि नारों का अपना अर्थ था, कि मुझे जो महसूस होता था, उसके प्रमाण के रूप में वे अधिक प्रस्तुत्य थे। लेकिन रात में बिस्तर पर लेटे हुए, मैं नारों को तिरोहित होने देता, उन्हें उस अतीत की छवियों, रोमानी चित्रों द्वारा स्थानापन्न होने देता, जिन्हें मैंने कभी नहीं जाना था।

वे मानवाधिकार आंदोलन की छवियां थीं, वे श्वेत-श्याम चित्र जो हर फरवरी में ‘ब्लैक हिस्टरी मंथ’ के दौरान उभरते हैं, वही छवियां जो मेरी मां ने मुझे बचपन में दिखाई थीं। कॉलेज छात्रों का एक जोड़ा, जिसके बाल छोटे हैं और कंधे तने हुए हैं, रंगरलियों के मूड में लंच काउंटर के सामने लड़खड़ाते हुए ऑर्डर पेश कर रहा है। मिसिसिपी के किसी पिछड़े इलाके में, एस.एन.सी.सी. के कार्यकर्ता बंटाईदार खेतिहरों को वोट देने के लिए समझा रहे हैं। एक कस्बाई जेल बच्चों से ठसाठस भरी है, जिनके हाथ आपस में गुंथे हुए हैं और वे आजादी के गीत गा रहे हैं।

इस तरह की छवियां मेरे लिए प्रार्थना जैसी बन गई थीं। वे मेरा मनोबल बढ़ाती थीं, मेरी भावनाओं को इस तरह रास्ता दिखाती थीं, जैसे कोई किताब नहीं दिखा सकती थी। वे मुझसे कहती थीं (हालांकि यह समझ बाद में ही बनी होगी, और यह भी एक व्याख्या हो सकती है, अपने झूठों के साथ) कि अपने विशिष्ट संघर्षो में मैं अकेला नहीं था, कि इस देश में समुदायों को कभी भी माना नहीं गया, कम-से-कम अश्वेतों के लिए तो नहीं ही। समुदायों का निर्माण किया जाना था, उनके लिए संघर्ष किया जाना था, और बगीचे की तरह उनकी साज-संभाल की जानी थी। वे लोगो के सपनों के साथ फैलते या सिकुड़ते थे- और मानवाधिकार आंदोलन में वे सपने बड़े थे। धरनों, प्रदर्शनों, जेल के गीतों में मुङो अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय उस स्थान से अधिक कुछ लगता था, जहां आप पैदा हुए या पले-बढ़े। संगठन से, साझा त्याग से सदस्यता पाई गई थी। चूंकि सदस्यता पाई गई थी, चूंकि जिस समुदाय की मैं कल्पना करता था, वह अभी निर्माणाधीन था- इस वादे पर बन रहा था कि अश्वेत, श्वेत, और भूरे, व्यापक अमेरिकी समुदाय खुद को पुन: परिभाषित करेगा- तो मैं यह मानता था कि शायद, कुछ अरसे में, यह मेरे जीवन के अनूठेपन को स्वीकार करेगा। यही संगठन को लेकर मेरा विचार था। यह मुक्ति का वादा था।

इसलिए, ग्रेजुएशन पूरा होने के पहले, मैंने अपनी जानकारी के हरेक मानवाधिकार संगठन को, देश के प्रगतिशील कार्यक्रम वाले निर्वाचित अश्वेत अधिकारियों को, स्थानीय परिषदों को, और किराएदार अधिकार समूहों को पत्र लिखे। जब किसी का जवाब नहीं मिला तो मैं निरत्साहित नहीं हुआ। मैंने एक साल अधिक पारंपरिक किस्म का काम करने, शिक्षा ऋण का भुगतान करने, और संभव हुआ तो थोड़ी बचत करने का फैसला किया। मैंने सोचा, बाद में मुझे पैसों की जरूरत होगी। संगठनकर्ता पैसे नहीं बनाते, उनकी गरीबी उनकी ईमानदारी का प्रमाण होती हैं।

अंतत: बहुराष्ट्रीय निगमों को परामर्श देने वाली एक कंपनी ने मुझे शोध सहायक के रूप में नियुक्त करने की मंजूरी दी। दुश्मनों की जासूसी करने वाले की तरह, मैं हर दिन मध्यम-मैनहटन दफ्तर आता और कंप्यूटर टर्मिनल के आगे बैठ जाता और रायटर्स मशीन को देखता रहता, जहां पूरी दुनिया से चमकदार हरे संदेश आते रहते थे। मेरे ख्याल से कंपनी में एक मैं ही अश्वेत पुरुष कर्मचारी था। यह मेरे लिए शर्म की, लेकिन कंपनी की सचिवों की जमात के लिए काफी गर्व की बात थी। वे मुझेबेटे की तरह मानती थीं, वे अश्वेत महिलाएं, वे मुझे कहतीं कि वे उम्मीद करती थीं कि एक दिन मैं कंपनी का संचालन करूंगा। कभी-कभी, लंच के दौरान, मैंने उन्हें अपने संगठन की शानदार योजनाओं के बारे में बताता और वे मुस्कराकर कहतीं, ‘अच्छी योजना है, बराक,’ लेकिन उनकी आंखें बतातीं कि वे मन-ही-मन निराश थीं। केवल लॉबी का रूखा-सा सुरक्षा गार्ड, आइक, मुझसे सीधे कहता कि मैं गलती करूंगा।
‘संगठन? यह राजनीति नहीं क्या? तुम ऐसी चीज क्यों करना चाहते हो?’
मैंने अपने राजनीतिक विचार, गरीबों को सक्रिय करने और समुदाय की सेवा करने के बारे में समझाने की कोशिश की। लेकिन आइक ने बस अपना सिर हिला दिया, ‘मिस्टर बराक, मुझे उम्मीद है अगर मैं आपको एक सलाह दूं तो आप बुरा न मानेंगे। आप इस पर भले आज अमल न करें लेकिन मैं आपको सलाह तो दूंगा कि यह संगठन-वंगठन के बारे में भूल जाइए और ऐसा कोई काम कीजिए, जिससे आपको कुछ पैसे मिलें।’
(बराक ओबामा की आत्मकथा ‘पिता से मिले सपने’ से साभार)

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