दो टूक (08 अक्तूबर, 2009)
कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी दिल्ली सरकार के लिए फख्र की बात है। मेहमानों की राह में सरकार पलक-पांवड़े बिछाए, इसमें भी बुराई नहीं। लेकिन क्या जरूरी है कि यह काम पब्लिक की जिंदगी दूभर करके ही पूरा हो?...
कॉमनवेल्थ खेलों की मेजबानी दिल्ली सरकार के लिए फख्र की बात है। मेहमानों की राह में सरकार पलक-पांवड़े बिछाए, इसमें भी बुराई नहीं। लेकिन क्या जरूरी है कि यह काम पब्लिक की जिंदगी दूभर करके ही पूरा हो? कॉमनवेल्थ प्रतिनिधिमंडल की अगवानी के लिए गुरुवार को जिस तरह आधी दिल्ली की नाकेबंदी कर दी गई है, उससे कई सवाल खड़े होते हैं।
ऐसा कैसा निरीक्षण है कि इतने बड़े पैमाने पर रास्तों में बदलाव कर दिया गया? क्या विदेशों में भी अंतरराष्ट्रीय आयोजनों से आम आदमियों की दिनचर्या को इस कदर गिरवी रख दिया जाता है? दिल्ली वालों को सड़कों से हटाकर कौन सी दिल्ली विदेशियों को दिखाई जाएगी? और सबसे बड़ा सवाल, क्या सरकारी आयोजनों से आम नागरिकों का रिश्ता तकलीफ और ट्रैफिक जाम वाला ही रहना है?