संकट और तैयारी
इसे शताब्दी का सबसे बड़ा सूख कहा जा रहा है। कृषिमंत्री शरद पवार की माने तो आधे से ज्यादा देश इस समय सूखे की चपेट में है। और धान की फसल का रकबा इतना कम हो गया है कि अगले सीजन में मंडी में काफी हायतौबा...
इसे शताब्दी का सबसे बड़ा सूख कहा जा रहा है। कृषिमंत्री शरद पवार की माने तो आधे से ज्यादा देश इस समय सूखे की चपेट में है। और धान की फसल का रकबा इतना कम हो गया है कि अगले सीजन में मंडी में काफी हायतौबा होने की आशंका है। कृषि का यह संकट इसलिए भी बड़ा है कि यह विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के तुरंत बाद आया है। कई मामलों में यह संकट आर्थिक मंदी से ज्यादा गंभीर है। एक तो हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। इसी के चलते आर्थिक मंदी का असर हमारे यहां ज्यादा गहराई तक नहीं गया। पर सूखे का असर काफी गहराई तक जाएगा। दूसरे, सूखे के कारण खाद्य पदार्थो की महंगाई और इससे जुड़े कई और संकट भी खड़े होंगे। इन आशंकाओं के बीच देश की सत्ताधारी पार्टी की कार्यसमिति जब सूखे पर विचार के लिए बैठती है तो उससे ढेर सारी उम्मीदें बंध जाती हैं। मसलन यह कि सरकार की प्राथमिकताओं में सूखे से निपटने को प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखने का पार्टी दबाव बना सके। और यह कि पार्टी सरकार की ऐसी इच्छाशक्ति का माध्यम बने जिससे सूखे के बुरे प्रभावों से निचले स्तर तक टकराने का कोई प्रभावी तरीका निकले। लेकिन बुधवार को जब नई दिल्ली में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई तो फैसला सिर्फ इतना हुआ कि पार्टी के सभी नेता और कार्यकर्ता अपने वेतन का बीस फीसदी हिस्सा सूखा राहत के लिए देंगे।
वैसे इस फैसले का भी अपना महत्व हो सकता है, अगर यह देश भर के संगठनों और प्रतिष्ठानों के लिए संकट के समय की एक प्रेरणा बने। लेकिन यह भी सच है कि सूखे जैसे संकट से निपटने में ऐसी राहत की एक सीमित भूमिका ही हो सकती है, मसलन किसी क्षेत्र के लोगों को भुखमरी से बचाने वगैरह के लिए। सूखे का असल मुकाबला तो नीतियों और प्रशासन के स्तर पर ही होगा, चाहे वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये लोगों तक अनाज पहुंचाने का मामला हो या सूखे के साथ ही कर्ज के दबाव से परेशान किसानों की आत्महत्याओं को रोकने का मामला हो। रोजगार गारंटी योजना के रूप में लोगों तक पहुंचने वाली राहत में भ्रष्टचार आड़े न आए इसकी गारंटी देना किसी भी तरह से सरकार का ही काम है। संकट के समय में एनजीओ की तरह की सोच रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन एक राजनैतिक दल से यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि वह ज्यादा बड़ी राजनैतिक इच्छाशक्ति का सूत्रधार बनेगा।